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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/६४

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भिखारिन ने निश्शंक भाव से कहा--आप उसे अपराध कहते हैं। मैं अपराध नहीं समझती।

'तुम मारना स्वीकार करती हो?'

'गवाहों ने झूठी गवाही थोड़े ही दी होगी?'

'तुम्हें अपने विषय में कुछ कहना है !'

भिखारिन ने स्पष्ट स्वर में कहा--मुझे कुछ नहीं कहना है। अपने प्राणों को बचाने के लिए मैं कोई सफाई नहीं देना चाहती। मैं तो यह सोचकर प्रसन्न हूँ कि जल्द जीवन का अन्त हो जायगा। मैं दीन, अबला। मुझे इतना ही याद है कि कई महीने पहले मेरा सर्वस्व लूट लिया गया और उसके लूट जाने के बाद मेरा जीना वृथा है। मैं उसी दिन मर चुकी। मैं आपके सामने खड़ी बोल रही हूँ, पर इस देह में आत्मा नहीं है। उसे मैं ज़िन्दा नहीं कहती, जो किसी को अपना मुंह न दिखा सके। मेरे इतने भाई-बहन व्यर्थ मेरे लिए इतनी दौड़-धूप और खरच-बरच कर रहे हैं। कलंकित होकर जीने से मर जाना कहीं अच्छा है। मैं न्याय नहीं मांगती, दया नहीं मांगती, मैं केवल प्राण-दण्ड मांगती हूँ। हां, अपने भाई-बहनों से इतनी बिनती करूँगी कि मेरे मरने के बाद मेरी काया का निरादर न करना, उसे छूने से घिन मत करना, भूल जाना कि यह किसी अभागिन, पतिता की लाश है। जीते-जी मुझे जो चीज़ नहीं मिल सकती, वह मुझे मरने के पीछे दे देना ! मैं साफ़ कहती हूँ कि मुझे अपने किये पर रंज नहीं है। ईश्वर न करे कि मेरी किसी बहन की ऐसी गति हो; लेकिन हो जाय तो उसके लिए इसके सिवाय कोई राह नहीं है। आप सोचते होंगे, जब यह मरने के लिये इतनी उतावली है, तो अब तक जीती क्यों रही। इसका कारण मैं आपसे क्या बताऊँ। जब मुझे होश आया और मैंने अपने सामने दो आदमियों को तड़पते देखा, तो मैं डर गयी। मुझे कुछ सूझ बूझ ही न पड़ा कि मुझे क्या करना चाहिए। उसके बाद भाइयों-बहनों की सज्जनता ने मुझे मोह के बन्धन में जकड़ दिया, और अब तक मैं अपने को इस धोखे में डाले हुए हूँ कि शायद मेरे मुख से कालिख छूट गयी और अब मुझे भी और बहनों की तरह विश्वास और सम्मान मिलेगा; लेकिन मन की मिठाई से किसी का पेट भरा है ? आज अगर सरकार मुझे छोड़ भी दे, मेरे भाई-बहन मेरे गले में फूलों की

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कर्मभूमि