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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/७२

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किसी दूसरे अवसर पर अमरकान्त इस फटकार पर घण्टों बिसूरा करता; पर इस वक्त उसका मन उत्साह और आनन्द में भरा हुआ था। भरे हए गद्दे पर ठोकरों का क्या असर। उसके जी में तो आ रहा था, इस वक्त क्या लुटा दूँ। वह अब एक पुत्र का पिता है। अब उससे कौन हेकडी जता सकता है ? वह नवजात शिशु जैसे स्वर्ग से उसके लिये आशा और अमरता का आशीर्वाद लेकर आया है। उसे देखकर अपनी आंखें शीतल करने के लिए वह विकल हो रहा था। ओहो ! इन्हीं आँखों से वह उस देवता के दर्शन करेगा!

लेडी हूपर ने उसे प्रतीक्षा-भरी आंखों से ताकते देखकर कहा--बाबजी आप यों बालक को नहीं देख सकेंगे। आपको बड़ा-सा इनाम देना पड़ेगा।

अमर ने संपन्न नम्रता से कहा--बालक तो आपका है। मैं तो केवल आपका सेवक हूँ। जच्चा की तबीयत कैसी है ?

'बहुत अच्छी है। सो गयी।'

'बालक खूब स्वस्थ है?'

'हां, अच्छा है । बहुत सुन्दर। गुलाब का पुतला-सा।'

यह कहकर सीरगृह में चली गयी। महिलाएँ तो गाने बजाने में मगन थीं। महल्ले की पचासों स्त्रियां जमा हो गयी थीं और उनका संयुक्त स्वर एक रस्सी की भांति स्थूल होकर अमर के गले को बांधे लेता था। उसी वक्त लेडी हूपर ने बालक को गोद में लेकर उसे सौरगृह की तरफ आने का इशारा किया। अमर उमंग से भरा हुआ चला; पर सहसा उसका मन एक विचित्र भय से कातर हो उठा। वह आगे न बढ़ सका। वह पापी मन लिये हुए इस वरदान को कैसे ग्रहण कर सकेगा। वह इस वरदान के योग्य है ही कब ? उसने इसके लिये कौन-सी तपस्या की है ? यह ईश्वर की अपार दया है, जो उन्होंने यह विभूति उसे प्रदान की। तुम कैसे दयालु हो भगवान!

श्यामल क्षितिज के गर्भ से निकलनेवाली लाल ज्योति की भांति अमरकान्त को अपने अन्तःकरण की सारी भद्रता, सारी कलुपता के भीतर से एक प्रकाश-सा निकलता हुआ जान पड़ा, जिसने उसके जीवन को रजतशोभा प्रदान कर दी। दीपकों के प्रकाश में, संगीत के स्वरों में, गगन की

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कर्मभूमि