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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/७८

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जीर्ण, बालों पर गर्द पड़ी हुई। उसकी गोद में एक साल-भर का हृष्ट-पुष्ट बालक था, बडा चंचल; लेकिन कुछ डरा हुआ।

डाक्टर ने पूछा--तुम कौन हो। मुझसे कुछ काम है ?

युवक ने इधर-उधर संशय-भरी आँखों से देखा, मानो इन आदमियों के सामने वह अपने विषय में कुछ कहना नहीं चाहता, और बोला---मैं तो ठाकुर हूँ। यहाँ से छः सात कोस पर एक गाँव है महुली, वहीं रहता हूँ।

डाक्टर साहब ने तीव्र नेत्रों से देखा, और समझ गये। बोले---अच्छा वही गाँव, जो सड़क के पश्चिम तरफ़ है। आओ मेरे साथ।

डाक्टर साहब उसे लिये पास वाले बगीचे में चले गये और एक बेंच पर बैठकर उसकी ओर प्रश्न की निगाहों से देखा, कि अब वह उसकी कथा सुनने को तैयार हैं।

युवक ने सकुचाते हुए कहा---इस मुकदमे में जो औरत है, वह इसी बालक की माँ है। घर में हम दो प्राणियों के सिवा और कोई नहीं है। मैं खेती-बारी करता हूँ। वह बाज़ार में कभी-कभी सौदा सुलुफ लाने चली जाती थी। उस दिन गाँववालों के साथ अपने लिये एक साड़ी लेने गयी थी। लौटती बार यह वारदात हो गयी ; गाँव के सब आदमी छोड़कर भाग गये। उस दिन से वह घर नहीं गयी। मैं कुछ नहीं जानता, कहाँ घूमती रही। मैंने भी उसकी खोज नहीं की। अच्छा ही हुआ कि वह उस समय पर नहीं गयी, नहीं तो हम दोनों में एक की या दोनों की जान जाती। इस बच्चे के लिए मुझे विशेष चिन्ता थी। बार-बार माँ को खोजता; पर मैं इसे बहलाता रहता था। इसी की नींद सोता और इसी की नींद जागता। पहले तो मालूम होता था, बचेगा ही नहीं, लेकिन भगवान की दया थी। धीरे-धीरे मां को भूल गया। पहले मैं इसका बाप था, अब तो माँ-बाप दोनों में ही हूँ। बाप कम, माँ ज्यादा। मैंने मन में समझा था, वह कहीं डूब मरी होगी। गाँव के लोग कभी-कभी कहते---उसकी तरह की एक औरत छाबनी की ओर है; पर मैं कभी उन पर विश्वास न करता।

जिस दिन मुझे खबर मिली, कि लाला समरकान्त की दूकान पर एक औरत ने दो गोरों को मार डाला और उसपर मुकदमा चल रहा है, तब मैं समझ गया कि वही है। उस दिन से हर पेशी में आता हूँ और सब के पीछ

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कर्मभूमि