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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/८२

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'बालक बहुत दुबला हो गया होगा ?'

'नहीं, मझे वह हृष्ट-पुष्ट दीखता था।'

'प्रसन्न भी था ?' 'हा खुब हँस रहा था।'

'अम्मा-अम्मा तो न करता होगा?'

'मेरे सामने तो नहीं रोया।'

'अब तो चाहे चलने लगा हो?'

'गोद में था; पर ऐसा मालूम होता था, कि चलता होगा।'

'अच्छा, उसके बाप की क्या हालत थी? बहुत दुबले हो गये हैं ?'

'मैंने उन्हें पहले कब देखा था ? हाँ दुःखी जरूर थे। यहीं कहीं होंगे, कहो तो तलाश करूँ। शायद खुद आते हों!'

मन्नी ने एक क्षण के बाद सजल-नेत्र होकर कहा--उन दोनों को मेरे पास न आने दीजिएगा बाबूजी। मैं आप के पैरों पड़ती हूँ। इन आदमियों से कह दीजिए अपने-अपने घर जाय। मझे आप स्टेशन पहुँचा दीजिए। मैं आज ही यहां से चली जाऊँगी। पति और पुत्र के मोह में पड़कर उनका सर्वनाश न करूँगी। मेरा यह सम्मान देखकर पतिदेव मुझे ले जाने पर तैयार हो गये होंगे; पर उनके मन में क्या है, यह मैं जानती हूँ ! वह मेरे साथ रहकर सन्तुष्ट नहीं रह सकते। मैं अब इसी योग्य हूँ कि किसी ऐसी जगह चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई न जानता हो। वहीं मजूरी करके या भिक्षा मांगकर अपना पेट पालुंगी।

वह एक क्षण चुप रही। शायद देखती थी कि डाक्टर क्या जवाब देते हैं। जब डाक्टर साहब कुछ न बोले, तो उसने ऊँचे, पर कांपते हुए स्वर में लोगों से कहा--बहनों और भाइयो ! आपने मेरा जो सत्कार किया है, इसके लिए आपकी कहां तक बड़ाई करूँ। आपने एक अभागिनी को तार दिया। अब मुझे जाने दीजिये। मेरा जुलूस निकालने के लिये हठ न कीजिये। मैं इसी योग्य हूँ, कि अपना काला मुँह छिपायें किसी कोने में पड़ी रहूँ। इस योग्य नहीं हूँ, कि मेरी दुर्गति का माहात्म्य किया जाय।

जनता ने बहुत शोर-गुल मचाया, लीडरों ने समझाया, देवियों ने आग्रह किया, पर मुन्नी जुलूस पर राजी न हुई और बराबर यही कहती रही, कि

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कर्मभूमि