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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/८८

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बालक ने उसकी नाक पकड़ ली और उसे निगल जाने की चेष्टा करने लगा, जैसे हनुमान सूर्य को निगल रहे हों।

सुखदा हँसकर बोली--पहले अपनी नाक बचाओ, फिर बाप की मूछें बचाना!

सलीम ने इतने जोर से पुकारा, कि सारा घर हिल उठा।

अमरकान्त ने बाहर आकर कहा--तुम बड़े शैतान हो यार, ऐसा चिल्लाये कि मैं घबरा गया। किधर से आ रहे हो? आओ, कमरे में चलो।

दोनों आदमी बगलवाले कमरे में गये। सलीम ने रात को एक गज़ल कही थी। वही सुनाने आया था। ग़ज़ल कह लेने के बाद जब तक अमर को सुना न ले, उसे चैन न आता था।

अमर ने कहा--मगर मैं तारीफ़ न करूँगा यह समझ लो!

'शर्त तो जब है, कि तुम तारीफ न करना चाहो, फिर भी करो---

यही दुनियाए उलफ़त में, हुआ करता है होने दो,

तुम्हें हँसना मुबारक हो, कोई रोता है रोने दो।'

अमर ने झूमकर कहा--लाजवाब शेर है भई! बनावट नहीं, दिल से कहता हूँ। कितनी मजबूरी है--वाह।

सलीम ने दूसरा शेर पढ़ा-- क़सम ले लो जो शिकवा हो तुम्हारी बेवफ़ाई का,

किये को अपने रोता हूँ, मुझे जी भर के रोने दो।

अमर--बड़ा दर्दनाक शेर है, रोंगटे खडे़ हो गये। जैसे कोई अपनी बीती गा रहा हो।

इस तरह सलीम ने पूरी गजल सुनाई और अमर ने झूम-झूमकर सुनी।

फिर बातें होने लगी। अमर ने पठानिन के रूमाल दिखाने शुरू किये।

'एक बुढ़िया रख गई है। गरीब औरत है। जी चाहे दो-चार ले लो।'

सलीम ने रूमालों को देखकर कहा--चौज तो अच्छी है यार, लाओ एक दर्जन लेता जाऊँ। किसने बनाये हैं ?

'उसी बुढ़िया की एक पोती है !'

'अच्छा, वही तो नहीं जो एक बार कचहरी में पगली के मुकदमे में गयी थी! माशूक तो यार तुमने अच्छा छांटा।'

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कर्मभूमि