इहि बिधि कछुक काल सुख पाये, मातु पिता परलोक सिधाए।
तिनके कर्म कीन्ह बहु भाँती, मन में सोच करत दिन-राती॥
तहँ गुरु कही पुनि कथा पुरानी, नरहरिदास मनोहर बानी।
सुन सुलसी अब सोच विहाई, सबके मातु-पिता रघुराई।
सो तुम मानहु विप्रवर, राजापुर को जाहु।
चेतहु मेरे बचन अब, करहु आपनो व्याहु॥
यह सुनि नुरत चले ननियावर, पहुँचे गृही भरे सब चाँवर।
पुनि सुन्दर कुल देख बराबा, मातुल ने त्यहि व्याह करावा॥
इन्हीं कथाओं के ऊपर युक्ति जमाकर लोगों ने अनेक ऐसी ही बातें जोड़ ली हैं। परन्तु तुलसीदास के समकालीन किसी ग्रन्थ में इनकी चर्चा अभी तक नहीं मिली है। कदाचित् प्रियादास वाली बात की पुष्टि में ही यह सब लिखा और कहा गया है। प्रियादास वाली बात पर हम पहले ही कह चुके हैं कि वह कोई प्रमाण नहीं कहा जा सकता। हमारी समझ में तो इन सबके स्थान में तुलसीदास का लिखना कि 'व्याह न बरेपी' ही को प्रामाणिक मानना चाहिए।
बाज लोगों ने यह कहकर प्रियादासवाली बात को सच मान लिया है कि यदि तुलसीदास को गृहस्थ अवस्था का अनुभव न हुआ होता तो वे उसका ऐसा अच्छा वर्णन न कर सकते। यह कोई बात नहीं। तुलसीदास ने अनेक बातों का ऐसा उत्कृष्ट वर्णन किया है जो उन्होंने प्राकृतिक चक्षु से तो कभी न देखा होगा, यथा रावण का अखाड़ा अथवा जनक की राजसभा आदि। कवि को मानसिक प्रज्ञा होती है और उसी धारणा से वह अनेक चीजों का अनुभव कर लेता है। परन्तु जब तक वे बाते न बताई जायँ जो तुलसीदास बिना गृहस्थावस्था का अनुभव किये नहीं लिख सकते थे तब तक उनके सम्बन्ध में क्या कहा जाय। हमारी समझ में तो 'क्याह न बरेषी' अथवा "ब्याहे न बरात गये" उन्हीं के लिए कहा जायगा जिनका ब्याह न हुआ हो। यह कहना कि कवि अनेक बातें अपने ऊपर रखकर संसार की कहता है अथवा संसार को सम्मुख रखकर कहता है, एक ऐसी बात है जो अपनी बातों के सब प्रमाण को झूठा कर सकती है। जो बाते स्पष्ट कवि के लिए कही हुई दिखाई देती हैं उन्हें कवि के लिए ही मानना चाहिए और जो आम मालूम होती हैं उनको आम समझना चाहिए ।
तुलसीदास के गुरु नरहरिदास बताये जाते हैं। इसका आधार उनका यह दोहा है—