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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/११९

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६४ कविता-कौमुदी भाव से इनके थोड़े से पद सूर सागर से सुनकर यहाँ लिखे जाते हैं- मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै । जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिरि जहाज पर आवै ॥ कमल नयन को छाँड़ि महातम परम गंग को छाँड़ि पियासो और देव को धावै । दुर्मति कूप खनावै ॥ जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै । सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै ॥ १ ॥ सोभित कर नवनीत लिये । घुटुरुवन चलत रेनु तन मंडित मुख में लेप किये ॥ are कपोल लोल लोचन छवि गौरोचन को तिलक दिये । लर लटकन मानो मत मधुप गन माधुरी मधुर पिये ॥ कठुला कंठ बज्र केहरि नख राजत है सखि रुचिर हिये । धन्य सूर एक पल यह सुख कहा भयो सत कल्प जिये ॥ २ ॥ यशोदा हरि पालने झुलावें । हलरा दुलराइ मल्हावें जोइ सोई कछु मेरे लाल को आउ निदरिया काहे न आनि तू काहे न वेगी सी आवे गावैं ॥ सुवावै । तोकों कान्ह बुलावे ॥ कहूँ पलक हरि मूँदि लेते हैं कबहू अधर फरकावें । सोवत जानि मौन ह

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रही कर कर सैन बतावें ॥ इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि यशुमति मधु गावै । जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ सो नँद भामिनि पावै ॥ ३ ॥ लालन हों वारी तेरे या मुख ऊपर । माई मेरिहि डोडिन लागे तातें भसि विदा दयो क्षू पर || सर्वसु मैं पहिले ही दोनों नान्हीं नान्हीं दैतुली दूपर । अब कहा करें। निछावरि सूर यशोमति अपने लालन ऊपर ॥४॥