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१०० कविता-कौमुदी

    समुभिक्त न परत तुम्हारी ऊधो।

ज्यों त्रिदोष उपजे जक लागत बोलति बच्चन न सूधो।। आपुन को उपचार करो कछु तब औरन सिख देहू।बड़ो रोग उपज्यों हैं तुमको मैन सवारे लेहू।। वहा भेषज नाना विधि को अरु मधुरिपु से हैं वैद। हम कातर डरपत अपने सिर यह कलंक है कैद।। सांची बात छाडि़ कत झूठी कहो कौन विधि सुनही। सूरदास मुकताहल भोगी हंस ज्वारि को चुनहीं।।२१।।

कैद || नहीं । २१ ॥ सूरदास मुकताहल भोगी हंस ज्वारि को चुनहीं ॥ अखियाँ हरि दरसन की प्यासी । देख्यो चाहत कमलनन को निसि दिन रहत उदासी || आये ऊधो फिरि गये आँगन डारि गये गर फाँसी । केसरि को तिलक मोतिन की माला वृन्दावन को वासी ॥ काहू के मन की कोऊ न जानत लोगन के मन हाँसी । सूरदास प्रभु तुमरे दरस को जाइ करवट ल्यों कासी ॥ २२ ॥ ऊधो अँखियाँ अति अनुरागी । इकटक मग जावति अरु रोवति भूलेहु पलक न लागी ॥ बिन पावस पावस ऋतु आई देखत हैं विमान । अबधों कहा कियो चाहत हैं छाड्छु निर्गुन ज्ञान ॥ सुनि प्रिय सखा श्याम सुंदर के जानत सकल सुभाइ । जैसे मिले सूर के स्वामी तैसी करहु उपाइ ॥ २३ ॥ हमको हरि की कथा सुनाउ । ये आपनो ज्ञान गाथा अलि मथुरा ही लै जाउ || वे नर नारिन के समुझहिंगी तेरो वचन बनाउ ! पालागों ऐसी इन बातनि उनही जाह रिझाउ ॥ जो शुचि सखा श्यामसुंदर को अरु जिय अति सतिभाउ । तो वारक आतुर छन नैनन वह मुख आनि दिखाउ |