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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१३४

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७६ सूरदास सुनि परमित पिय प्रेम की खातक चितवत पारि । वन आशा सब दुख सहै अंत न याचै बारि ॥ २ ॥ देखो करनी कमल की कीनों जल सें हेत । सूख्यो सरहि समेत ॥ ३ ॥ परस पतंग | चित न भयो रस भंग ॥ ४ ॥ न पूँछे प्राण तज्यो प्रेम न तज्यो दीपक पीर न जानई पायक तनु तो तिहि ज्वाला जसो मीन वियोग न लहि सकै देखि जु तू ताकी गतिहि प्रीति परेवा की गनो को नीर बात । रति न घटै नन जात ॥ ५ ॥ चाहत चढ़न अकास । परत छाँड़ उर स्वाँस ॥ ६ ॥ पवन न राज्यो राग । सर सनमुख उर लाग ॥ ७ ॥ विषयी खेलै तऊ न माने जान्यो साधु सार | हार ॥ ८ ॥ समाज | नहँ चढ़ि तीय जु देखिये सुमर सनेह कुरंग धरि न सकत पग पछ मनों सब रस को रस प्रेम है तन, मन, धन, यौवन खिसै तैं जु रत्न पायो भलो प्रेम कथा अनुदिन सुनी तऊ न उपजी लाज ॥ ६ ॥ सदा सँघाती आपनो जिय को जीवन प्रान 1 सो तू बिसलो सहज ही हरि ईश्वर भगवान वेद पुराण स्मृति सबै सुर नर सेवत महामूढ़ अज्ञान मति क्यों न सँभारत ताहि ॥ ११ ॥ खग मृग मीन पतंग लौं मैं सोधे सब ठौर । जल थल जीव जिते तिते प्रभु पूरन पावन सखा दयालु कृपालु प्रभु प्राण गर्भवास अति त्रास में सुनि सठ तेरो प्राणपति ॥ १० ॥ जाहि । कहाँ कहाँ लगि और ॥ १२ ॥ प्राणनडु को जीवन जाके हाथ जहाँ न एको ॥ नाथ । १३ ॥ अंग । वन छाँड़यो संग ॥ १४ ॥