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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/८८

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कबीर साहब भक्ति भाव भादों नदी सबै चली ३३ घहराय । सरिता सोई सराहिये जो जेठ मास ठहराय ॥ ३५ ॥ जब लगि भक्ति सकाम है कह कबीर वह क्यों मिले तब लगि निष्फल निःकामी निज सेव । देव ॥ ३६ ॥ बलाय ! ॥ ३७ ॥ लागी बुरी जो वार पार हैजाय जरि आय । चबाय ॥ ३८ ॥ मन माहि । कबहूँ नाहिं ॥ ३६ ॥ लागी लागी क्या करे लागी सोई जानिये लागी लगन छुटै नहीं जीभ चोंच मीठा कहा अंगार में जाहि चकोर सोओ तो सुपने मिलै जागौं तो लोचन राता सुधि हरी बिछुरत ज्यों तिरिया पीहर बसै सुरति रहै ऐसे जन जग में रहें हरि को कबीर हँसना दूर करु रोने से बिन रोये क्यों पाइये प्रेम पियारा हँसी तो दुख ना बीसरे रोवौं बल घटि पिय माहिँ । भूलें नाहिं ॥ ४० ॥ चीत । करु मीत ॥ ४१ ॥ जाय । माहिँ बिसूरना ज्यों घुन काठहिँ खाय ॥ ४२ ॥ हँस हँस केतन पाइया जिन पाया तिन हाँसी खेले पिउ रोय । मिलै तो कौन दुहागिनि होय ||४३|| सुखिया सब संसार है खावै औ सोवै । दुखिया दास कबीर है जागे औ रोवै ॥ ४४ ॥ माँस गया पिञ्जर रहा ताकन लागे काग । साहिब अजहुँ न आइया मंद हमारे भाग ।। ४५ ।। बस करें पिय मिलन की औ सुख नाहै अंग । पीर सहे बिनु पदमिनी पूत न लेत उछंग ॥ ४६ ॥ बिरहिनि ओदी लाकड़ी सपचे औ धुंधुआय । छूटि पड़ों या बिरह से जो सिगरो जरि जाय ॥ ४७ ॥ 3