पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९२

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कबीर साहेब समदृष्टी सतगुरू किया मेटा ३७ भरम बिकार । जहें दखों तह एकही सहज मिलै सो दूध सम साहिब का दीदार ॥ माँगा मिलै सो ८७ ॥ पानि । जा में पैंचातानि ॥ ८८ ॥ सूप सुभाय । उड़ाय ॥ ८६ ॥ देखु निहार । जैसा थोथा दइ चलना करै असार कह कबीर वह रक्त सम साधू ऐसा चाहिये सार सार को गहि रहै माटा नजि भूसी गहै कबीर सारहि छाँड़ि कै उतते कोई न बाहुरा इतते सब ही जात हैं उततें सत गुरु आइया भवसागर के जीव को खेइ लगावैं जाते अहार ॥ ६० ॥ बूलू धाय । भार लिदाय लदाय ॥ ६१ ॥ जा की बुधि है धीर । तीर ॥ ६२ ॥ जाय तो आवै नाहिँ । लेहुमन माहिँ ॥ ६३ ॥ विष का करै अहार । जो आठ पहर हुसियार ||४|| बिन जाने कित जाँव ! पाव कोस पर गाँव ॥ ६५ ॥ दया करी मोहि आय । पल में पहुँचा जाय ।। ६६ ॥ जो आवै तो जाय नहि अकथ कहानी प्रेम की समझ सूली ऊपर घर करै ताको काल कहा करै नाँव न जानौं गाँव का चलता चलता जुग भया सतगुरु दीनदयाल हैं कोटि जनम का पंथ था चलन चलन सब कोई कहै साहिब से परिचय नहीं कबीर का घर सिखर पर पाँव न टिकै पिपीलिका मरिषे तो मरि जाइये ऐला भरता को मरे मोहि पहुचेंगे देसा केहि ठौर सिलहली और । ॥ ६७ ॥ गैल । || ६८ ॥ जहाँ जंजार । पंडित लादे बैल पर दिन में सौ सौ बार ॥ ६६ ॥ छूटि