सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अभाव
१०३
 

हो गया हूं कि चाहे जब चुपचाप मौत धोखा दे जाए। कुछ उम्र से, कुछ रोग और कष्ट से।'

परन्तु एक भद्र पुरुष ने कहा--लालाजी, आप तो अब उतने कष्ट में नहीं हैं। एसेम्बली में तो कुर्सियां गद्देदार हैं और उनमें बिजली के हीटर लगे होते हैं।

लालाजी व्यंग्य को पीकर बोले--यह सब कुछ होने पर भी वैसा कुछ सुख नहीं है।

'यदि ऐसा न होता तो आपसे उधर जाने की आशा न थी। वह आपको शोभा देने योग्य स्थान भी तो नहीं। आप वे पुरुष हैं, जिनके नाम से गवर्नमेंट कांपती रहती थी। आप अब जब उस गोल पिंजरे में बैठकर बोलते हैं तो ऐसा ज्ञात होता है कि कोई कुशल अभिनेता अभिनय कर रहा हो।'

लालाजी ने विषादपूर्ण दृष्टि से कहा:

'क्या सचमुच?'

भद्र पुरुष कुछ लज्जित हुए। परन्तु लालाजी ने एक बार आकाश को ताकी हुए कहा:

'हाय! श्रद्धानंद! आज तुमने मुझे जीत लिया।'

'क्या आपने सुना?'

'रोज़ सुनता हूं।'

'आप क्या इनका मुंहतोड़ उत्तर नहीं देंगे?'

'नहीं।'

'आप चुपचाप सब सुन लेंगे?'

'हां।'

'पर लोग मर्यादा से बाहर हो रहे हैं।'

'क्या कहते हैं?'

'कहते हैं आप वतनफरोश हैं।'

'और?'

'आप देश-घातक हैं।'

'और?'

'आप कायर हैं, आरामतलब हैं, कष्ट नहीं सह सकते।'