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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/२१८

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मास्टर साहब
 

पूरा रहता है। घी में घी, चीनी में चीनी कपड़ा-लत्ता, और दफ्तर के दस कुली-चपरासी हाज़िरी भुगताते हैं वह जुदा। वे क्या तुमसे ज्यादा पढ़े हैं? क्यों नहीं रेल-बाबू हो जाते?'

'वे सब तो गोदाम से माल चुराकर लाते हैं प्रभा की मां! मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। तनखाह जो मिलती है, उसी में गुजर-बसर करना होगा।'

'करना होगा, तुमने तो कह दिया। पर इस महंगाई के ज़माने में कैसे?'

'इससे भी कम में गुजर करते हैं लोग, प्रभा की मां!'

'वे होंगे कमीन, नीच। मैं ऐसे छोटे घर की बेटी नहीं हूं।'

'पर अपनी औकात के मुताविक ही तो सबको अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए। इसमें छोटे-बड़े घर की क्या बात है? अमीर आदमी ही बड़े आदमी नहीं होते प्रभा की मां!'

'ना, बड़े आदमी तो तुम हो, जो अपनी जोरू को रोटी-कपड़ा भी नहीं जुटा सकते। फिर तुम्हें ऐसी ही किसी कहारिन-महरिन से ब्याह करना चाहिए था। तुम्हारे घर का धन्धा भी करती, इधर-उधर चौका-वरतन करके कुछ कमा भी लाती।'

मास्टर साहब चुप हो गए। वे पत्नी से विवाद करना नहीं चाहते थे। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा जाने दो प्रभा की मां, आज झगड़ा मत करो। वे थकित भाव से उठे, अपने हाथ से एक गिलास पानी उंडेला और पीकर चुपचाप कोट पहनने लगे। वे जानते थे कि आज अब चाय नहीं मिलेगी। उन्हें ट्यूशन पर जाना था।

भामा ने कहा-जल्दी आना, और ट्यूशन के रुपये भी लेते आना।

मास्टरजी ने विवाद नहीं बढ़ाया। उन्होंने धीरे से कहा-अच्छा। और घर से बाहर हो गए।

बहुत रात बीते जब वे घर लौटे तो घर में खूब चुहल हो रही थी। भामा की सखी-सहेलियां सजी-धजी गा-बजा रही थीं। अभी उनका खाना-पीना नहीं हुआ था। भामा ने बहुत-सा सामान बाजार से मंगा लिया था। पूड़ियां तली जा रही थीं और घी की सौंधी महक घर में फैल रही थी

पति के लौट आने पर भामा ने ध्यान नहीं दिया। वह अपनी सहेलियों की आवभगत में लगी रही। मास्टर साहब बहुत देर तक अपने कमरे में पलंग पर लेटे भामा के आने और भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे, और न जाने कब सो