सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बड़नककी
४१
 

 सेठजी ने ज़रा उच्च स्वर में कहा-तो क्या हर्ज है, सेठ साहव कोई गैर थोड़े ही हैं। दो-चार दिन के आगे-पीछे रुपये भेज देना।

'सेठ साहेब, आज रुपया मिल जाता तो ठीक था। आज रुपये की ज़रूरत है। वरना वैसे तो कोई बात न थी।'

'आप जानते हैं, रुपया नकद रोककर हमेशा रखा नहीं जाता। हां, दो-चार दिन में मिल जाएगा, यह तो व्यवहार की बात है।'

'व्यवहार की बात तो यह है कि हुंडी फौरन सकार दी जाएं।'

'पर हमारा-आपका वैसे भी तो एक मामला है।'

'यह तो ठीक है, पर रुपया तो आज ही चाहिए।'

'आज रुपया नहीं दिया. जा सकता।'

'रुपया आज ही मिलना चाहिए।'

'आज रुपया नहीं मिलेगा।'

'तब हुंडियां नहीं सकारी जाएंगी?'

'क्यों नहीं!'

'तब रुपया अभी दीजिए।'

'अभी?'

'जी हां, अभी।'

'दो-चार दिन भी न ठहरेंगे?'

'दो-चार मिनट भी नहीं!'

सेठजी हंस दिए। मुनीमजी का मुंह फीका हो रहा था। वे थरथर कांप रहे थे। सेठजी की हंसी का रहस्य नहीं समझे। मुंह ताकने लगे।

सेठजी ने कहा- मुनीमजी, बेलदारों को तो बुलायो। बेलदारों के आने पर सेठजी ने हुक्म दिया, इस दीवार को तोड़ तो दो।

दीवार पर घन पड़ने लगे। ईंटों के गिरते ही छनाछन रुपयों का ढेरा पड़ा। लोग हैरान थे। सेठजी ने गरजकर कहा--मुनीमजी, कह दो इस कंगले से, अपने हाथ से रुपया गिनकर ले जाए।

आगन्तुक सेठ धरती में गड़ गए। वे हुंडियां वहीं छोड़कर चुपचाप चल दिए।

उसी दिन रात्रि को बड़नककी के पास उसके सच्चे प्रेम का उपयुक्त उपहार