सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९२
भाई की बिदाई
 

और अस्तित्व का केन्द्र है । तुम भारत की अयोग्य पुत्रियां हो, जब तक तुम स्वार्थ और अज्ञान के गढ़े में हो, देश की करोड़ों बहिनों की गुलामी नहीं दूर हो सकती।

सतर्क स्वर में युवक ने इतनी बातें कहीं।

बालिका रो रही थी। उसने धीरे-धीरे आकर युवक का हाथ पकड़ लिया । उसने कहा--मैं हाथ जोड़ती हूं, इसे तुम ले जाओ, तुम्हें ले जाना पड़ेगा।

'तुम्हारा दिल दुखेगा।'

"तुम न ले जाओगे तो मैं जान खो दूंगी।'

युवक नायक ने साथियों को संकेत किया। वे रुक गए। वह गृहपति के पास जाकर बोला-क्या आपके पास और धन-सम्पत्ति है ?

'अब कुछ नहीं है।'

'इसमें से जितना चाहो रख लो।'

गृहिणी प्रभावित हो रही थी, उसने एक भारी-सा सोने का ज़ेवर उठाकर कहा--वैशाख में तुम्हारी बहिन की शादी करनी है उसके लिए यह काफी है। मेरे पुत्रो, जाओ, यह सब तुम ले जाओ। भगवान तुम्हारा कल्याण करे । युवक ने गृहिणी के पैर छुए, साथियों ने गट्ठर उठाए और चल दिए। बालिका युवक के पीछे जा रही थी, जब उसने ड्योढ़ी से बाहर कदम रखा, उसने पुकाराः

'भाई !'

युवक हर्षातिरेक से विह्वल होकर लौटा :

'कहो बहिन, क्या कहती हो?'

'तुम्हें आना पड़ेगा। बालिका ने मन्द मुस्कान से कहा। उस अभेद्य अन्धकार में वह मुस्कान को देख तो न सका, पर अनुभव करके बोला:

'आऊंगाबहिन!'

'नाम तो बताओ।'

'देवीसिंह।'

'अच्छा, वैशाख कृष्णा तेरस ।'

'याद रहेगा?' बालिका ने फिर पूछा।

'अवश्य, यदि स्वाधीन रहा तो आऊंगा ज़रूर।'