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पृष्ठ:कामायनी.djvu/१११

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अवकाश-सरोवर का मराल।
कितना सुंदर कितना विशाल ;

इसके स्तर-स्तर में मौन शांति ,
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति ,
परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल ,
मुसक्याते इसमें भाव सकल ,
हँसता है इसमें कोलाहल ,
उल्लास भरा सा अंतस्तल ,
मेरा निवास अति-मधुर-कांति ।
यह एक नीड़ है सुखद शांति ।"

"अंबे फिर क्यों इतना विराग ,
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग ?"
पीछे मुड़ श्रद्धा ने देखा ,
वह इड़ा मलिन छबि की रेखा ,
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा ,
जिस पर विषाद की विष-रेखा ,
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग ,
सोया जिसका है भाग्य, जाग।

बोली--"तुमसे कैसी विरक्ति ,
तुम जीवन की अंधानुरक्ति ,
मुझसे बिछड़े को अवलंबन ।
देकर, तुमने रक्खा जीवन ,
तुम आशामयि ! चिर आकर्षण ,
तुम मादकता की अवगत घन ,
मनु के मस्तक की चिर-अतृप्ति ,
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति!

कामायनी / 99