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पृष्ठ:कामायनी.djvu/१३०

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आनंद

चलता था धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल ,
सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल ।
था सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि ,
घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि ।
वृष-रज्जु वाम कर में था दक्षिण त्रिशूल से शोभित ,
मानव था साथ उसी के मुख पर तेज अपरिमित ।
केहरि-किशोर से अभिनव अवयव प्रस्फुटित हुए थे ,
यौवन गंभीर हुआ था जिसमें कुछ भाव नये थे ,
चल रही इड़ा भी वृष के दूसरे पार्श्व में नीरव ।
गैरिक-वसना संध्या - सी जिसके चुप थे सब कलरव ।

उल्लास रहा युवकों का शिशु गण का था मृदु कलकल ,
महिला-मंगल-गानों से मुखरित था वह यात्री दल ।
चमरों पर बोझ लदे थे वे चलते थे मिल अविरल ,
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर अपने ही बने कुतुहल ।
माताएँ पकड़े उनको बातें थीं करती जातीं ,
'हम कहाँ चल रहे' यह सब उनको विधिवत समझातीं ।
कह रहा एक था, "तू तो कब से ही सुना रही है--
अब आ पहुँची लो देखो आगे वह भूमि यही है ।
पर बढ़ती ही चलती है रुकने का नाम नहीं है ,
वह तीर्थ कहाँ है कह तो जिसके हित दौड़ रही है?
"

118 / कामायनी