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पृष्ठ:कामायनी.djvu/४४

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मत कहो, पूछो न कुछ, देखो न कैसी मौन,
विमल राका-मूर्त्ति बन कर स्तब्ध में बैठा कौन !
विभव मतवाली प्रकृति का आवरण वह नील ,
शिथिल है, जिस पर बिखरता प्रचुर मंगल खील।
राशि-राशि नखत-कुसुम की अर्चना अश्रांत ,
बिखरती है, तामरस सुंदर चरण के प्रांत ।

मनु निरखने लगे ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप ,
वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप,
बरसता था मदिर कण-सा स्वच्छ सतत अनंत ,
मिलन का संगीत होने लगा था श्रीमंत ।
छूटती चिनगारियां उत्तेजना उद्भांत।
धधकती ज्वाला मथुर, था वक्ष विकल अशांत।
वातचक्र समान कुछ था बाँधता आवेश,
धैर्य का कुछ भी न मनु के हृदय में था लेश।

कर पकड़ उन्मत से हो लगे कहने--"आज,
देखता दूसरा कुछ मधुरिमामय साज !
वही छवि ! हाँ वही जैसे ! किंतु गया यह भूल ?
रही विस्मृति-सिंधु में स्मृति-नाव विकल अकूल !
जन्म-संगिनि एक थी जो कामबाला नाम--
मधुर श्रद्धा था, हमारे प्राण को विश्राम--
सतत मिलता था उसी से, अरे जिसको फूल
दिया करते थे अर्घ में मकरंद सुषमा-मूल
प्रणय में भी बच रहे हम फिर मिलन का मौद
रहा मिलने को बचा सूने जगत की गोद!
ज्योत्स्ना सी निकल आई ! पार कर नीहार,
प्रणय-विधु है खड़ा नभ में लिये तारक हार!



32 / कामायनी