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पृष्ठ:कामायनी.djvu/८१

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जब शिरीष की मधुर गंध से मान-भरी मधुऋतु रातें,
रूठ चली जातीं रक्तिम-मुख, न सह जागरण की घातें,
दिवस मधुर आलाप कथा-सा कहता छा जाता नभ में,
वे जगते-सपने अपने तब तारा बन कर मुसक्याते।

वन बालाओं के निकुंज सब भरे वेणु के मधु स्वर से,
लौट चुके थे आने वाले सुन पुकार अपने घर से,
किन्तु न आया वह परदेसी-०युग छिप गया प्रतीक्षा में ,
रजनी की भीगी पलकों से तुहिन बिन्दु कण कण बरसे !

मानस का स्मृति-शतदल खिलता,झरते बिदु मरंद घने,
मोती कठिन पारदर्शी ये, इनमें कितने चित्र बने!
आंसू सरल तरल विद्युत्कण, नयनालोक विरह तम में,
प्राण पथिक यह संबल लेकर लगा कल्पना-जग, रचने ।

अरुण जलज के शोण कोण थे नव तुषार के बिंदु भरे,
मुकुर चूर्ण बन रहे, प्रतिच्छवि कितनी साथ लिये बिखरे!
वह अनुराग हंसी दुलार की पंक्ति चली सोने तम में,
वर्षा-विरह-कुहू में जलते स्मृति के जुगुनू डरे-डरे।

सूने गिरि-पथ में गुंजारित शृंगनाद की ध्वनि चलती,
आकांक्षा लहरी दुःख-तटिनी पुलिन अंक में थी ढलती ।
जले दीप नभ के, अभिलाषा-शलभ उड़े, उस ओर चले,
भरा रह गया आंखों में जल, बुझी न वह ज्वाला जलती ।'

"माँ"--फिर एक किलक दूरागत, गूंज उठी कुटिया सूनी,
माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में लेकर उत्कंठा दूनी

कामायनी /69