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पृष्ठ:कामायनी.djvu/९३

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देखो यह दुर्धर्ष प्रकृति का इतना कंपन !
मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र है इसका स्पंदन !
इस कठोर ने प्रलय खेल है हँस कर खेला !
किंतु आज कितना कोमल हो रहा अकेला ?

तुम कहती हो विश्व एक लय है, मैं उसमें
लीन हो चलूँ? किंतु धरा है क्या सुख इसमें ।
क्रंदन का निज अलग एक आकाश बना लूँ ,
उस रोदन में अट्टहास हो तुमको पा लूँ ।

फिर से जलनिधि उछल बहे मर्य्यादा बाहर ,
फिर झंझा हो वज्र-प्रगति से भीतर बाहर ,
फिर डगमग हो नाव लहर ऊपर से भागे ,
रवि-शशि-तारा सावधान हों चौंकें जागें ,
किंतु पास ही रहो बालिके मेरी हो, तुम ,
मैं हूँ कुछ खिलवाड़ नहीं जो अब खेलो तुम ?"

आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें ,
तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते ।
प्रजा क्षुब्ध हो शरण माँगती उधर खड़ी है ,
प्रकृति सतत आतंक विकंपित घड़ी-घड़ी है ।
सावधान, में शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्या ।
कहना था कह चुकी और अब यहाँ रहूँ क्या ।"

"मायाविनि, बस पा ली तुमने ऐसे छुट्टी ।
लड़के जैसे खेलों में कर लेते खुट्टी ।
मूर्तिमयी अभिशाप बनी सी सम्मुख आयी ,
तुमने ही संघर्ष भूमिका मुझे दिखायी ।

कामायनी / 81