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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१०१

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काव्य-निर्णय और भागे-आठवें उल्लास से सत्रहवें उल्लास तक विशद'..। इन दोनों स्थानों के ( तृतीय-उल्लास और पाठ से सत्रहवें उल्लास तक) अलंकार- वर्णनों में साम्यता-एक-सा क्रम नहीं है, आगे-पीछे है। साथ ही श्राप (दासजी) ने यहाँ प्रथम - उपमा तदनंतर अनन्वय, प्रतीप, दृष्टांत, अर्थातर- न्यास, निदर्शना, तुल्ययोगिता, उत्प्रेक्षा, अपन्हुति, स्मरण, भ्रम, संदेह, व्यतिरेक, अतिशयोक्ति, उदात्त, अधिक, अन्योक्ति, व्याजस्तुति, पर्यायोक्ति, श्राक्षेप, विरुद्ध, विभावना, विशेषोक्ति, उल्लास, तद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सम, भाविक, समाधि, सहोक्कि, विनोक्ति, परिवृत्त, शूक्ष्म, परिकर, स्वभावोक्ति, काव्यलिंग, परिसंख्य, पृष्णोत्तर, यथासंख्य, एकावली, पर्याय, संसृष्टि, सकर और अंगादि- संकर, समप्रधान संकर, तथा संदेह संकर अलंकारादि को संक्षिप्त करते हुए भी यथा क्रम वर्णन नहीं किया है। इनके अवांतर भेद भी यहाँ नहीं लिखे हैं । यह एक ही छंद में लक्षण-उदाहरण की भाषाभूपणी-पद्धति बाद के बहुत से प्राचार्यों ने अपनायी है, जो कंठस्थ करने में सुविधाजनक है और अलंकारों का ज्ञान-प्राप्त करने में अधिक श्राशाप्रद है । इति श्री सकल कलाधर कलाधर बंसावतंस श्रीमन्महाराजाधिराज कुमार बाबू 'हिंदूपति' विरचित काव्य-निरनए भलंकार- बरननो नाम तृतीयोग्लासः ।