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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/११९

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काव्य-निर्णय "जासों पति पति हित करै, सुतिय 'ज्येष्ठा' माहि । जा प्रति घट हित नाह को, कहत कनिष्ठा ताहि ॥" -सुं० २० (सुंदरदास) श्राचार्य केशव ने यह भेद नहीं माना है। चिंतामणि, मतिराम, देव, रसलीन और पद्माकर आदि प्राचार्यों ने 'ज्येष्ठा-कनिष्ठा' पृथक-पृथक् न मान एक ही उदाहरण में दोनों को संमिलित कर दिया है । कनिष्ठा का उदाहरण 'ठाकुर' कवि ने बड़ा सुंदर प्रस्तुत किया है, जैसे- "रोज न आइऐ जो मन-मोहन, तौप ये नेक मतौ सुनि लीजिए । प्रॉन हमारे तिहारे अधीन, सम्हें बिन देखें कहौ किम कै जीजिए॥ 'ठाकुर' लालन प्यारे सुनों, बिनती इतनी पै महो चित दीजिऐ ॥ दूसरे, तीसरें, पाँचऐं, सातऐं, नौऐं तो भला भाइयो कीजिए।" अथ असूया (ईया) हेतुक विरह उदाहरन जथा- नींद, भूख, प्यास उन्हें ब्यापत न तपसी'-लों, ___ ताप-सी चढ़त तँन चंदन लगाए ते । अति-ही अचेत होत चैत-हूकी चाँदनी में, चंद्रकन' खाए ते, गुलाब-जल-न्हाए ते॥ 'दास' भौ जगत प्रॉन, प्रॉन को बधिक औ- कृसॉन ते अधिक भयौ सुमन बिछाए ते । नेह के बढाए" उन एते कछु पाए, तेरौ पाइबौ सु जाँन्यों बलि' भोहन चढ़ाए वे ।।* वि०-"दासजी ने यह छंद शृंगार-निर्णय में 'मान-वियोग' के उदाहरण में भी दिया है। मान-वियोग- "जह ईरषा-अपराध ते पिय-तिय ठौने मॉन । बदि वियोग दस हूँ दिसा, "मान-बिरह" सो जॉन ॥" - नि० (दास ) पृ० ९८, पा०-१. (प्र०) न घांम-सीत...। (३०) तापसी-लों,। (प्र०-३) तापस लो...! २. (भा० जी०) (३०) चंद्रक ख्वाए ते.. । ३. (प्र०) प्रॉन-टू को...। ४, (१० नि०) भए.. | ५, (शृ० नि०) लगाए उन तोते कछु पाए..। (स० प्र०)...बढाए उन एतौ कह पायो,.... (भा० जी०) बढाए वो न एते कछु.... ६ ( नि०) अब....

  • नि० (दास) पृ० ६६, २६६ ।