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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२०९

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१७४ काव्य-निर्णय वि०-"यहाँ भी विविध उपमेयों से उपमानों को हीन बतलाया गया है, अतः तृतीय प्रतीपालंकार है।" "दासजी का यह छंद स्वरचित 'शृंगार-निर्णय' में नख-सिख-अंतर्गत वेणी वर्णन के, 'रसुकसुमाकर' के संग्रह-कर्ता तथा 'मनोज-मंजरी' रचयिता ने 'नायिका- वर्णन के, एवं 'नखसिख-हजारा' में संपूर्ण अंग वर्णन के अंतर्गत उल्लेख किया गया है। दासजी की इस उक्ति के साथ किसी उर्दू कवि की यह सुमधुर सूक्ति पढ़िये और कहिये-"कितनी सुंदर हैं।" जैसे-- "वे कफ्रे-पा हमने सहलाए है नाज़ क नर्म-नर्म। क्या जताती है तू अपनी नर्मी ऐ मखमल यहाँ ।" चतुर्थ प्रतीप उदाहरन जथा-- सही, सरस, चंचल बड़े, मदे रसीली-बास । पैन द्विरेफॅन इन गन, सरस कहों में 'दास' । अस्य तिलक- इहाँ उपमेह की बराबरी में उपमान को बरनॅन नाहीं है, ताते गयी प्रतीप है। पाँचए प्रतीप को लच्छन जथा- जहँ कीजतु उपमेइ लखि, उपमाँ ब्यर्थ विचार। ता-हू कहत 'प्रतीप' हैं, सो 'पाँचौ " प्रकार ॥ वि०-"अर्थात् जब उपमेय को उपमान का कार्य करने में समर्थ पाकर भी उस ( उपमान ) का अनादर कर दिया जाय--उसे व्यर्थ ठहरा दिया जाय, तब पांचवां प्रतीप कहा जायगा।" अस्य उदाहरन जथा- जहाँ प्रिया-आँनन उदित, निसि-बासर सानंद । तहाँ कहा अरविंद है, पौर' बापुरी चंद ॥ पा०-१. (३०) यो...। (प्र०-३) मो.... २. (३०) त्रिया...। ३. (मा० जी०) (३०) (प्र० म०) कहा...।