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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२२५

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१६० काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा-- पूरब ते फिर पच्छिम-ओर, कियो सुर' आपगा धारन चाँहैं। तूलँन - तोपिकर हे मति - मंद, हुतासँन-दंद प्रहारन चाँहैं। 'दास' देखि कलाधर' कालिमा, कूरिन छील जु डारन चाँहैं। नीति-सुनाइ के मो मन* ते, नंदलाल को नेह-निबारन चाँहैं ।। वि.-"रसकुसुमाकर के रचयिता ने इस छंद को 'सली (बिससे नायक- नायिका अपनी गुप्त-प्रकट कोई बात नहीं छिपाते ) के उदाहरण में संकलित किया है। सखी की व्युत्पत्ति के प्रति 'पद्माकर' का कथन जैसा ऊपर अंडर कोमा में लिखा जा चुका है- "जिन सों नायक-नायिका, राखें कछु न दुराउ । सखी कहावे ते सुघर, साँची सरल-सुभाउ ॥" और इनके पूर्व-वर्णित कार्य- 'काज-सखिन के चार है, मंडन, सिच्छा-दान । उपालंभ, परिहास पुनि, बरनंत सुकवि सुजॉन ॥ मंडन तिय-हि सिगारियो, सिच्छा बिनै-बिलास । उपालंभ सो उरहनों हँसी-करन परिहास ॥" अस्तु, दासजी की यह उक्ति ऊपर कथित किसी विषय के अंतर्गत नहीं अाती, क्योंकि यह सूक्ति सष्टतः नायिका की सखि वा दूती-प्रति है, सखी की नायिका-प्रति नहीं। अतः यह परकीया नायिका की उक्ति सखी-प्रति है, जो उसे लोक-रक्षक सलाह दे रही है। रसखान ने भी यही बात बड़े सुंदर ढंग से उद्धव के प्रति कहलाई है, यथा- "लाज को लेप चढाइकें अंग, पी सब सीख को मंत्र सुनाइके । गारडू कै ब्रज-लोग थक्यौ, करि औषद बेसक सोंह दिशाइकें ।। पा०-१. (सं० प्र०) सुर पार गेधारन...। (भा० जी०) सुर श्री पग...। २. (३०)... के मति-अंध...। (र० कु०) के ज्यों मति मंद, हुतासन दड...। (वे.)..., हुतासन- धंध...। ३. (३०) दास जू देख्यौ कलानिधि-कालिमा...। (सं० प्र०) (२० कु०) कलानिधि...। ४.(भा० जी०) (३०) छीन सों छिल...1 (सु ति०) छूरी न ते छिल.. । ५ (सु ति०) (र० कु०) मन ते.... .सु. ति० (भा०) पृ० ५६, १३८ । र० कु० (भ०) पृ० ५५, १२६ ।