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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३१६

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२८१
काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय २८१ वि०-"दाजी प्रणीत यह सवैया "श्रौदार्य की अत्युक्ति कहा जा सकता पुनः उदाहरन जथा- सुमन-मई महि में करै, जब सुकमारि बिहार । तब सखियाँ सँग-ही फिरें, हाथ लिए कच-भार । वि० -"सौंदर्य की 'अत्युक्ति' है। सौंदर्य को-नायिका-सौंदर्य वर्णन में अत्युक्ति अलकार को, विविध भाषा के कवि कोविदों ने बहुत कुछ अपना कर (इसके सहारे) कहा-सुना है, यथा- 'गोल-गोल गोरी गरबीली की बिलोकि ग्रीब, सख सकुचाइ जाइ सिंध में तच्यौ करै । पीक-लीक-दीखति गिलति गल-गोरे कल- कठ सँमता-लों कूकि कोकिल पच्यौ करें । विन-हीं बिचारे सुनि सैहजै उचारे मृदु- बचॅन-विचारे-कबि रचना रच्यौ करें। भारी भई भीर वा अहीर बृषभान-भोंन, बीर, बरसाँने स्याँम-बेद सौ बच्यो करै । "छाले-परिबे के डरन, सके न हाथ छिबाइ । झिझकति हिऐं गुलाब के, मया मैंबावति पाँह ॥" "शानों पैजुल्म, जला में दिल, दिल में हसरतें। इतना तो बोझ सर पै, नजाकत कहाँ रही ॥" अथ अत्यंतातिसयोक्ति लच्छन जथा- जहँ कारज' पैहले सधै, कारन पीछे होइ । 'अत्यंतातिस-जुक्ति' तहँ, बरनत हैं सब कोइ ।। वि०-"जहाँ कार्य प्रथम और कारण तदनंतर हो, कार्य के बाद कारण उत्पन्न हो-कारण के प्रथम-हो कार्य हो जाय, वहाँ "अत्यंतातिशयोक्ति" कहो जाती है । स्वभावतः कारण के बाद कार्य हुअा करता है, पर इसमें विपरीत कार्य के बाद कारण का होना दिखलाया जाता है।" पा०-१ ( का० ) (३०) (प्र०) जहां काज...। २. (रा० पु० प्र०) सरै...। ३. ( का० ) (३०) तिहि । (प्र०) हि...1 .