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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३७

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काव्य-निर्णय
 

भी सुंदर चमक उठी है। रलावली अलंकार वहाँ होता है जहाँ प्रस्तुत अर्थ के साथ-साथ अन्य प्राकरणिक अर्थ भी क्रम के साथ निकलें-प्रगट हों। क्योंकि रत्नावली का शब्दार्थ है रत्नों को पंक्ति। इसमें एक अर्थ के साथ-माथ दूसरे प्राकरणिक अर्थ भी रहते हैं । यथा-

"रत्नावलि प्रस्तुत प्ररथ,क्रम ते औरों नाम।"
-भाषाभूषण १६८ वाँ दोहा,
 

अथवा जैसा दासजी स्वयं कहते हैं-

    "क्रमी वस्तु गनि विदित जो, रचि राख्यौ करतार ।
     सो क्रम आँने काव्य में, रत्नावली-प्रकार ॥"
"काव्य निर्णय १८ वाँ उल्लास"
 

पोद्दार कन्हैयालाल जी ने-"जिनका साथ कहा जाना प्रसिद्ध हो, ऐसे प्राकरणिक अर्थों के क्रमानुसार वर्णन को" रत्नावली अलंकार का विषय माना है । विशेष के लिये दे०-१८ वा उल्लास ।

ग्रंथनिर्माण के कारण का कथन
(दोहा)

जगत-बिदित उदियाद्रि सो' 'अरबर' देस अनूप । रबि-लों पृथिवी-पति उदित, जहाँ सोम-कुल-भूप । सोदर जिन' के ग्याँन-निधि, 'हिंदूपति' सुभ नाम । तिन" की सेवा लियो, 'दास' सकल सुख धाम | अट्ठारें सौ तीन है, संबत, आस्विन मास । ग्रंथ 'काव्य-निरने रच्यो, बिजै दसमि' दिन दास ॥ बूमि सु 'चंद्रालोक' अरु 'काव्य-प्रकास'हु'• ग्रंथ । सममि सुरुचि भाषा कियौ, लै औरों' कवि-पंथ ।।

पा०-१. (रा० का०) सौ...। २. (भा० जी० का०) तहाँ...। ३. (भा० जी० का०)सहुदर...। . (भा० जी० का०) ताके...।-(प्र०) तिन्ह के... ५. (प्र०) ताकी से...- (भा० जी० का०) (३०) जिनकी...। ६. (प्र०) सों...। ७. (प्र०) (३०) सै...। . (प्र.)को... (३०) हो...। ९. (प्र०) दसों...। १०. (प्र०).... १९. (ब) औरहुँ ।