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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४४१

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४०६ काव्य-निर्णय मूठौ-सुख-सपनें में करन न पायौ ए हो निरदई ऐसी मोहि तुरत दगा दई । जौलों भरि ननन वो मूरति निहारि देखों, तौ-लों नेन-छाँदि नींद-बैरिन बिदा भई॥" "सपने में भायौ सखी, साँवरौ-सलोंनों वह, जिहि अंग-अंग सों अनंग को लजायी है। मोहिनी-सी बातें कहि कहि गहि-गहि बाँह, __ भौति - भाँति हरख हजार उपजायौ है ।। कहै 'सिवदत्त' मो पै कछूनों कयौ-ई परै, विरह-बियोग बिना नाह ने भजायो है। जौलों हँसि-हँसि गरें लाऊँ-री रसिकराइ, तौ लों वा बजरमारे गजर - बजायौ है॥" सपने - हूँ सोंबन न दई निरदई दई, बिलपति रही जैसें जल-बि न झखियाँ । 'कुदन' सँदेसौ प्रायौ लाल मधुसूदन को, सबै मिलि दौरी लेन भंगन बिलखियाँ ॥ बूझे समाचार ना मुखागर सँनेसौ कछु, कागद लै कोरी हाथ दीनों कहि सखियाँ। छतियाँ सों पतियाँ लगाइ बैठी बाँचिबे कों, जौ-लों खोलोंखाँम तौलों खुलि गई अंखियो । "काहु-काहू भाँति राति लागो-ही पलक तहाँ- सपने में भाँनि केलि-रीति उँन ठाँनी-री । भाप दुरे जाइ मेरे नेनन - मुनाइ करू, हों-हूँ बजमारी (दिवे को भकुलाँनी-री॥ ऐरी मेरी पाली, या निरानी करता की गति, 'द्विजदेव' नेकऊ न परत पिकांनी-री । जौ-लों उठि आपनों पथिक-पिय इंटों तौ-जों हाइ हुन भौखिन सों नींद-ही हिरौनी-री॥"