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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४५२

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४१७ काम्य-निर्णय . 'मुरलीधर सुकवि' सेत चीर तेन धारयो त में, वाहू के गरे में चांदनी को परयौ फंदना। चंद - बंदना कों तू गढ़ी भई - री बाल, तेरे मुख-चंद की करत चंद बंदना ॥" और इसी अलंकार में मतिराम कहते हैं- "सकल सिंगार-साज संग ले सहेलिन कों, . सुपरि मिलन चली मानद के कंद कों। कवि 'मतिराँम' मग करति मनोरयन, . पेख्यौ परजंक पै न प्यारे नँद-नंद कों॥ । नेह ते लगी है देह दाँहन दहत गेह, बाग में बिलोकि द्रम-बेलिन के श्रृंद कों। चंद कों हँसत तब भायौ मुख-चंद, अब चंद लाग्यौ हँसन तिया के मुख-चंद कों॥" अथ विकल्प अलंकार लच्छन जथा-- है 'बिकल्प' यह कै वहै, यै निसचे जहँ राज । सन्च-सीस, कै सस्त्र निज, भूमि गिराऊँ आज ।। वि०-"जहां इस प्रकार का विकल्प हो कि 'यह है, वा वह वहाँ 'विकल्प' अलंकार कहा जाता है। विकल्प का शब्दार्थ है-"अनेन वान्येनवेति विकल्पः" (कौटिल्य-अर्थशास्त्र) यह, या वह । यही नहीं, विकल्प का अर्थ विरोधी या विविध कल्पना भी किया जाता है, अर्थात् दो वस्तुत्रों में एक ही वस्तु चाहे 'यह या वह' को मान्यता दी जाती है। तुल्य-बल वाली विविध एकत्रित- स्थितियों में विरोध होने के कारण सादृश्य-गर्मित विकल्प कहा जाता है और इसके वाचक शब्द है-"अथवा, अादि, कि, कै, किधों, कैघों वा।" संस्कृत-अलंकार ग्रंथों में सबसे प्रथम रुय्यक प्राचार्य ने अपने अलंकार- 'सर्वस्व' तथा 'सूत्र' में इस (विकल्प) का उल्लेख करते हुए इसे 'काव्य-न्याय (बाह्यन्याय) मूलक वर्ग में (इसकी) गणना की है । कोई-कोई इसी 'काव्य-न्याय' का 'वाक्य-न्याय' भी नाम करण करते हैं। अलंकार-सर्वस्व और सूत्र के बाद चंद्रालोक में इसका नामोल्लेख-"विकल्पस्तुल्पबलयोर्विरोधश्चातुरी युतः" (दो विरुद्ध क्रिया-भाव प्रकट करने वाले किसी एक क्रिया के वाचक शब्द के द्वारा चतुरतापूर्वक 'यह, या वह' कहने पर विकल्प ) उक्त लक्षण बतलाते हुए किया गया है । साहित्य-दर्पण के कर्ता (रचयिता) विश्वनाथ चक्रवर्ती ने भी चंद्रा- २७