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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४६५

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काव्य-निर्णय ऊधौ सों को 'रसखान' कहै, जिन वित्त धरयो तुमें ऐसे उपाइ के। कारे-बिसारे को चाँहें उतारयौ भरे विष बावरे राख-लगाइ कें॥" वास्तव में जैसा पूर्व में ऊपर लिखा-कहा गया है--"कान्यार्थापत्ति के कलेवर में चमकता हुआ 'श्री रसखान' जी का यह अनुपम श्राभूषण रूप वह उदाहरण है, जिस पर टिप्पणी करते हुए हृदय में विचार करना पड़ता है कि कहीं छंद-विभूषित भाव में शब्द-स्पर्श से खरोच न लग जाय--नस्तर जैसा दुरुपयोग न हो जाय, क्योंकि 'ऊधौ सों को 'रस-खांन' कहै." से लेकर "कारे- बिसारे को चाहें."...तक भव्य-भाव ही नहीं, उसके शब्दों में भी ऐसी मंजुलता है कि वह छूते-ही-उसके भाव-भरे शब्द जिह्वा पर पाते-ही, मैले न हो जाय यह अाशंका उत्पन्न हो जाती है, वाह..। कारे-बिसारे कौ चाहें उतारयौ, अरे विष वावरे राख लगाइकें । "इति श्री सकल कलाधरकलाधरवंसावतंस श्री मन्महाराज-कुमार श्री बाबू हिंदूपति विरचिते काव्य-निरनए सॅमालंकारादि- गुन-दोष बरनन नाम पंचदसोल्लासः।"