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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४८६

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काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा- तेरी खीभिबे की रुचि'रोमि मॅन-मोहन की, याते वौ स्वाँग नित सजि-सजि भाबते । पु-ही ते कुंकुंम की छाप, नख-छत गात, अंजन अधर, भाल जाबक लगाबते ।। ज्यों-ज्यों तू पयाँनी अनखाँन दरसाबै त्यों-त्यों स्याँम कृत-आपने लहे को फल -पाबते । उन्हें खिसियाउ 'दास' हँसि जो सुनाबै तोहिं, वे-हु मँन भांबते,'• हमारे मन भाँबते'. वि०-"दासजी ने व्याजोक्ति-रूप इस उदाहरण को अपने नायिका भेद के अंथ शृंगार-निर्णय में-"नायिका-हित सखी के उदाहरण में भी दिया है । उद्दीपन विभाव में सखी का विशेष स्थान है, क्योंकि वह --"तिय-पिय "दोनों की हितू होती है, यथा- "तिय-पिय की हितकारिनी, 'सखी' कहैं कविराब । उत्तम अरु मध्यम, अधम, प्रघट दूतिका-भाव ॥" - नि. अतएव दासजी कृत ब्याजोक्ति का दूसरा उदाहरण नायिका की अधिक हितू सखी का है और नायक-अधिक-हितू सखी, यथा- "केसरि कै केसर को उर में नखच्छत के, करो ले कपोलॅन में पीक लपटाई है। हारावली-तोरि-छोरि, कचन विथोरि - खोरि, मोह गति भोर इत भोरें उठि भाई है। पा०-१.(३०) (V० नि०) रूख... २. (का०) (३०) (प्र०) वहै स्वांग सजि-सजि नित... (शु नि०) वहै सान सजि नित...। ३. (३०) स० पु० प्र०) श्रावतो। ४. (वे०) (सं० पु० प्र०) लगावतो। ५. ( का० )(प्र०) ते...। ६. (का०) (३०) (प्र.) (सं० पु० प्र०) ( नि०) अनखानी...। ७.( का०) (३०) (प्र.)(सं० पु० प्र०) (शृ. नि०) सुख... (३०) (सं० पु० प्र०)"पावतो। ८. ( का० ) (वे.) (सं० पु० प्र०) उनहीं खिस्याङ्क ..। (प्र०) उन्हें खिसिपावै-दास हास.... (शृ० नि०) तिनहीं खिसाब 'दास' जो तू यों सुनावै तुम यों ही मन-भावते...। ६.(का० ) तुम वौडू मन... (३०) तुम यों हूँ मन... (प्र.) तुम्हें वाहू मन...। १०.(सं० पु० प्र०) मन-भावतो...। ११. (वे ) ( स० पु० प्र०) भावतो।

  • नि० ( दास ) पृ०७१, २०१ ।