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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५०३

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काव्य-निर्णय उसका असती होना ही प्रत्यक्ष है । अलंकार-भाशय ( उत्तमचंद भंडारी) में 'प्रत्यक्ष-प्रमाण का उदाहरण सुंदर है, यथा- "सखि, नंद के द्वार सिंगार-संमें, सब गोप-कुमार खरे हित के। वो सूरत नीठि निहारन कों, सब दीठि लगाइ रहे चित दै॥ तब खोलत-ही पट, मोहन की छवि-देखत-ही इकबार सबै। चहुँ मोर ते ग्वाल पुकार उठे,-"ब्रज-दूलह नंद-किसोर की जै॥" और कविवर श्री विहारीलाल का यह दोहा- "मजों तरोंना-हीं रहयौ, सति-सेवत इक अंग । __नॉक-बास बेसर लयौ, रहि मुक्तन के संग विहारीलाल कृत यह दोहा उनकी 'सतसई' में चोटी का है, साक्षी है स्व. पं० श्री पद्मसिंह शर्मा, यथा-"तरीना कान के एक प्राभूषण का नाम है, जिसे 'तरकी' या 'ढेढ़ी' भी कहते हैं। बेसर, नाक का प्रसिद्ध भूषण (नथ) है। कवि ने इन दोनों शब्दों के साथ श्लेप-बल से बड़ा अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। कवि कहते हैं- "श्रुति (कान) रूप एक अंग का सेवन करने वाला 'तरोंना' अब तक 'तरों+ना' ही है (तरा नहीं है ) और 'मुक्तन' के संग' (मोतियों के साथ रह) 'बेसर' (नथ) ने 'नाँक-बास' ( स्वर्ग का बास ) प्राप्त कर लिया-नाक में स्थान पा लिया ।" "इसका दूसरा 'प्रतीयमान अर्थ है-"कोई किसी मुमुक्ष से कह रहा है कि मुक्ति चाहते हो तो जीवन्मुक्त महात्माओं की संगति करो, श्रुति-सेवा भी एक संसार-तरणोपाय है सही, किंतु इससे शीघ्र नहीं तरोगे। देखो, यह कान का 'तरोंना' श्रुति-रूप एक अंग का कबसे सेवन कर रहा है, पर अब तक "तरोंना-ही रह्यो”–तरा नहीं, तरोना-ही बना है और बेसर ने "मुक्तन के संग रहि (बसि)"-मुक्तों को संगति पाकर "नांक-बास लह्यो"- वैकुठ-बास पाकर सालोक्य मुक्ति प्राप्त कर लो। अथवा कोई किसी केवल अति-सेवी मुमुक्ष से कह रहा है कि "एक अंग थति का सेवन करते हुए (भी) तुम अब तक नहीं तरे-विचार तरंगों में गोते खा रहे हो श्रोर वह देखो, अमुक व्यक्ति मुक्तों को सत्संगति से 'बेसर' अनुपम 'नाक-बास' (वैकुंठ-प्राप्ति, सायुज्य-मुक्ति) प्राप्त कर लिया। दोहे के तरोंना, सुति, अंग, नाक, बेसर और मुक्त न ये सब पद श्लिष्ट हैं- दु-अर्थक हैं। __ संगति की महिमा से ग्रंथ भरे पड़े हैं। गो. तुलसीदासजी ने भी भगवद्- भक्तों को सत्संगति की महिमा बड़े समारोह से समझायी है, पर इस चमत्कार. जनक प्रकार से किसी ने कहा हो, सो हमने नहीं सुना । विहारी अपने कविता