सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४ काव्य-निणय लेने से यह लक्षणा है। नायिका का अनुपम सौंदर्य सूचित करना ही यहां प्रयोजन है।" अथ सारोपा लच्छना लच्छिन 'दोहा' जथा- और थापिऐ और कों, क्यों हूँ समता पाइ । 'सारोपा" सो लच्छनाँ, कहें सकल कबिराइ॥ वि०-"संस्कृत-आचार्यों ने 'सारोपा लक्षणा' के प्रति कहा है कि" जहाँ प्रारोप्यमाण (विषयी) और अारोप के विषय दोनों को शब्दों-द्वारा कहा जाय -किसी वस्तु पर सादृश्यगुण के कारण किसी अन्य वस्तु का आरोप किया जाय, वहाँ यह लक्षणा होती है। उदाहरन 'दोहा' जथा- मोहन मो दृग-पूतरी, वौ' छषि सिगरी प्राँन । सुषा-चितोंन सुहावनी, मीच बाँसुरी-तॉन । अस्य तिलक मोहन कों डग की पूतरी थाप्यौ, औ वाकी छवि कों प्रॉन थाप्यो, ताते 'सारोपा-लच्छिना भई। वि०-"दासजी ने इस उदाहरण रूप दोहा-द्वारा 'मोहन' को श्राखों की पुतली, उनकी 'छवि' को प्राण, चितवन को 'सुधा' और बाँसुरी की मधुर तान को मृत्यु बतलाया है-- अारोप किया है, अतएव यह 'सारोपा' लक्षणा का मुख्य विषय है। यहाँ अलंकार रूप में द्वितीय निदर्शना' भी कही जा सकती है, क्योंकि- थापिम गुन उपमेह को, उपमान-हि के भंग । ता कह 'द्वितीय निदर्सना', भाषत सुमति उतंग ॥" अर्थात् जहां किसी वस्तु विशेष में होने वाले गुण को दूसरी वस्तु में होना दिखलाया जाय, वहाँ यह अलंकार होता है।' दासजी ने यह दोहा २४ वें उल्लास में 'काव्यदोषोद्धार के प्रसिद्ध विद्या- विरुद्ध क्वचित् गुण के उदाहरण में भी दिया है और कहा है-"शब्द में पा०-१. [सं० प्र०] [३०] 'सारोपित...।' २. [प्र०] [न्य० म०] वा... [३०] वै...! [का०प्र०] वा सिगरी छवि प्रॉन । ३. [प्र०-२] चितवन सुधा सुहामनी...।

  • का० प्र० [भानु] पृ० ७४ | 1, का० प्र० [भानु] पृ० ७४ | ब्य० मं० [ला० भ०],

पृ० १५ ॥