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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९७

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५६२ काव्य-निर्णय विरोधाभास वा विरोध को संस्कृत-साहित्याचार्यों ने विरोध' वा अतिशय- वर्ग मूलक अलंकार मान अर्थालंकारों में वर्णन किया है। दासजी ने इसे शन्दालंकार माना है, क्यों ? इसका कारण नहीं दिया है। ___ मुद्रा भी संस्कृत-अलंकार ग्रंथों में अर्थालंकार-ही माना गया है। इसके सर्वप्रथम-कर्ता “कुवलयानंदकार" अप्पय दीक्षित हैं। श्रस्तु, आपसे पूर्व श्राचार्यों ने जहाँ अलंकारों का वर्गीकरण किया है, वहाँ इसका नामोल्लेख नहीं मिलता। वाद के प्राचार्यों ने इसे "गूढार्थप्रतीति" मूलक वर्ग में रखा है। ____वक्रोक्ति के आविष्कर्ता श्राचार्य वामन हैं और "पुनरुक्तवदाभास" के उद्भटाचार्य । अस्तु, “वक्रोक्ति" 'रुय्यक' और उनके शिष्य 'मंखक' के अनुसार गूढार्थप्रतीति मूलक वर्ग का अर्थालंकार-ही कहा गया है। पुनरुक्तवदाभास को सभी (संस्कृत तथा ब्रजभाषा ) आचार्यों ने शन्दालंकार ही माना है । ब्रजभाषा में-विरोधाभास, मुद्रा और वक्रोक्ति अर्थालंकार कहे-सुने गये हैं।" प्रथम स्लेसालंकार लच्छन जथा-- सब्द उभै-हू सक्ति ते, स्लेस'-अलंकृत माँन । अनेकार्थ-बल इक-दुतिय, तात्पर्ज-बल जाँन । दोइ, तीन कै भाँति बहु, जहाँ प्रकाशित अर्थ । सो 'स्लेसालंकार' है, बरनत बुद्धि-समर्थ ।। वि०-"जहाँ एक-ही श्लेष-श्रलंकृत शब्द के उभय-शक्ति से तात्पर्य- अनुसार अनेक अर्थ निकलते हो, वहाँ बुद्धिवान् जन 'श्लेषालंकार' मानते हैं। यह श्लेषालंकार शब्द के दो, तीन वा अनेक अर्थ प्रकाशित करने पर- "वैर्थिक, व्यर्थिक और चतुःअर्थक रूप तीन प्रकार का होता है, ऐसा दासजी का मत है। श्लेपालंकार पर पूर्व में काफी लिखा जा चुका है, अस्तु, “जहाँ एक-ही शब्द के कई अर्थ होते हों वहाँ इस अलंकार का होना सर्व संमति युक्त है, क्यों कि श्लेष का अर्थ है-चिपका हुश्रा । जहाँ एक शब्द में एक से विशेष अर्थ चिपके हों वहाँ यह अलंकार माना जायगा । दासजी ने श्लेष के ऊपर लिखे-अनुसार "द्वेर्थिक", व्यर्थिक. चतुः अर्थक" रूप तीनों भेदों का उल्लेख किया और इन तीनों के उदाहरण भी पा०-१. का०) वे ० प्र०)(सं० पु० प्र०) स्लेपार्लंकृत।