सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६५५ काव्य-निर्णय अथ प्राम्यार्थ दोष लच्छन-उदाहरन जथा- चतुरन की-सी बात नहिं, प्राम्यारथ सो चेति । "अली पास पौदौ' भलें, मोहि किन पौढ़ देति ॥" अस्य तिलक इहाँ पुरुष है के सी की समानता करनों ग्राम्य दोष हैं। वि०-"ग्राम्याथ दोष का लक्षण-भद्दपन से, गँवारपन से बात या कार्य करना है और जैसा कि दासजी ने उदाहरण प्रस्तुत किया है-"तुम पास भले-हो सो जाओ--लेट जात्रो, पर मुझे भी सोने दो-लेटने दो "कहना भद्दे पन का द्योतक है।" अथ संदिग्धार्थ दोष लच्छन-उदाहरन जथा- 'संदिगधारथ' २ अर्थ बहु, एक कहत संदेह । "किहि कारन कॉमिनि लिखी, सिब-मूरति निज गेह ॥"* अस्य तिलक इहाँ कॉम के डरते वा जिबे कों कॉमिनी ने सिख की मूरति लिखी, मै निसचे के संग नाहि कहयो जाइ, ताते ये दोष है। अथ निरहेतु दोष लच्छन-उदाहरन जथा- बात कहे बिन-हेतु की, सो 'निरहेतु' बिचारि। . "सुमन झरयो मानों अली, मदन दियो सर-डारि॥" अस्य सिलक इहाँ कौम ने कोंन हेतु सों सर (बान) डारि दियो सो न कयौ-वाके डारि देवे कौ कारन न कयौ, ताते इहाँ निरहेतु दोष है। अथ अनुविक्रत दोष लच्छन-जथा- जो न नए अणै धरै, 'अनुविक्रत' सु बिसेष । जनु लाटानुप्रास भो आवृति-दीपक देख ॥ पा०-१. (का०) (२०) (०) पौढ़ी। २. (का०) (०) (प्र०) संदिग्धार्थ नु अर्थ...। ३. (सं०.पु. प्रा--दि०) कारज...

  • काव्य-प्रमाकर (भा०) ५०-६४६। .