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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६९९

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६६४ काव्य-निर्णय "जिसने कुछ एहसा किया, इक बोझ उस पर रख किया। सर से तिनका क्या उतारा, सर पै छप्पर रख दिया ।" इस उल्लास के प्रारंभ में कहा जा चुका है कि 'दासजी' को दोषो- द्भावना की सूझ-बूझ संस्कृत-रीति-थों-विशेषकर श्री प्राचार्य मम्मट के 'काव्य-प्रकाश की देन है, उसी के विकास का सुफल है, जिसे आपने संक्षिप्त- बहुलीकरण के साथ अपनाया, यथा- "बूझि सु 'चंद्रालोक' अरु 'काव्य-प्रकास' सुग्रंख । सममि सुरुचि भाषा कियौ, लै भौरों कवि-पंथ ॥" -काव्य-निर्णय प्रथम उल्लास अस्तु प्राचार्य मम्मट-प्रयुक्त जो काव्य का स्वरूप-"तद दोषौ-शब्दार्थों सगुणावलंकृती पुनः क्वापि" ( काव्य-प्रकाश-प्रथम उल्लस ) के झरोखे से निर्मल बना झाँख रहा था, उसके गुण-दोषों का निरखना-परखना भी श्रावश्यक था, क्योंकि आपसे पूर्व प्राचार्य 'भामह' का स्पष्ट मत है-- "सवर्था पदमप्येकं न निगद्यामवद्यवत् । विलक्षण हि काव्येन दुःसुतेनैव निंद्यते ॥" -काव्यालंकार १, ११ किंतु, दोषों के मूल-सिद्धांतों का प्रभाव ज्यों का त्यों बना रहा, जो बाद में प्राचार्य वामन (संस्कृत) के समय स्फुट हुा । अस्तु दोषों का कथन- उपकथन जहाँ पद-वाक्यादि के साथ उलझ रहा था, वहाँ ध्वनि-काल के श्राते- अाते उसके प्रति विचार बदले तथा उसके वास्तविक रूप जानने-पहिचानने की अोर लोग मुके । फलतः श्री मम्मट उनके उत्कर्षापकर्ष के प्रति जागरुक होकर उनकी तह तक पहुंचे और सार-रूप से एक व्यापक, पर सूक्ष्म सूत्र का सुदर निर्माण किया जिसमें 'रस-वाक्यार्थ-गत' सारे दोष समा जाते हैं। वह सूत्र है- ___"मुख्या) इतिर्दोषो०......." जो श्रापके काव्य-प्रकाश के सातवें उल्लास में शीर्ष स्थान पर सुशोभित है। यहाँ "हति"-शन्द ही संपूर्ण दोष-निरूपक है, जो अपकर्ष-अर्थ का द्योतक है। दासजी ने उसी का सुंदर अनुकरण किया है इत्यादि..." "इति श्रीसकलकलाधरकलाधरबंसावतस श्रीमन्महाराज कुमार श्रीवाहिदूपति विरचिते 'काम्य-निरनए' सन्वार्थ-दूषन बरनोमनाम त्रियोविसतिमोग्लासः ॥"