सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[४]

अपने वास्तविक रूप में नहीं पहिचाने जा सकते। उदाहरण के लिये तुलसी-शशी (गो.तुलसीदास) कृत महान् ग्रंथ'रामचरितमानस के विविध संस्करण और माशु संपादित 'सूरसागर' जो ब्रजभाषा-सूर्य सूरदास की बे-जोड़ कृति है,के नाम लिये जा सकते हैं। यह सूरसागर काशी की स्वनामधन्य संस्था-नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुआ है और उसके संपादक भी हिंदी के उद्भट विद्वान माने जाते हैं । सच तो यह है कि इस संपादन-क्षेत्र में जो भी विद्वद्जन पधारे वे सब अपने-अपने संपादित ग्रंथों की भाषा के देश, जाति, गुण, शील-संयुक्त नहीं थे वे दूर के रिश्तेदार थे । अतः भाषा की हानि-लाभ से उन्हें कोई संबंध न था, अस्तु :

'बोए पेड़ बमूर के, आम कहाँ ते खाइ।'

पूर्व मैं जैसा कहा गया है कि ग्रंथ-संपादन की दो शैलियाँ तदनुकूल (ग्रंथ-कर्तानुकूल ) और स्वानुकूल संज्ञा रूप में कही जा सकती हैं, उसी भाँति लिपि-करण की विधि भी दो प्रकार की देखने में आती हैं। ये विधि भी दो-"प्रथम 'थ-भाषानुकूल' जो अपनी भाषा के मूल उच्चारण ध्वनि के साथ लिपि-करण विधि में भी घुली-मिली रहती है वह, और दूसरी वही स्वानुकूल, जिसे प्रथ-लेखक अपनी जाति-देश-संपन भाषा को अनजाने में प्रयोग करता है । इस प्रथ-लिपि करण के और भी दो नाम–'पूर्वी विधि और पश्चिमी विधि देखने सुनने में भाते हैं । अतएव पूर्वी प्रथ-लेखन-पद्धति जहाँ कवि की भाषा को अपने कुल का परित्याग करा विपरीति कुल से संबंध स्थापित कराती हुई उसे दूसरे-ही दुरूह रूप में ढकेल देती है, वहाँ पश्चिमी पद्धति ग्रंथानुकूल, कवि-मनुकूल और तद्भाषा के सहज उच्चारण माधुर्य से भोतप्रोतः कर सुंदर मंजुल प्रभा विखरेती हुई मंथर गति से चलती है। पूर्वी-पद्धति रूप ग्रंथ-भाषा के विकृत करने का उल्लेख डा. धीरेंद्र वर्मा ने अपने 'ब्रजभाषा' नामक ग्रंथ में किया है, यथा :

"स्वर्गीय जगन्नाथदास रत्नाकर द्वारा संपादित बिहारी सतसई का सटीक संस्करण 'बिहारी रत्नाकर' प्राप्त प्रजभाषा प्रथों में एक ऐसी रचना है जो अनेक हस्तलिखित पोथियों को सावधानी से देखकर संपादित की गई है। संपादक ने पाठों में एक रूपता ला दी है, यद्यपि प्राचीन हस्त-लिपियों में यह नहीं मिलती। उदाहरण के लिये उन्होंने समस्त प्रकारांत संज्ञाभों को उकारांत बना दिया है, यद्यपि ऐसे रूप पोथियों में कहीं कहीं ही मिलते हैं । क्योंकि कुछ ब्रज-परसर्गों में अनुनासिकता मिलती है, इसलिए उन्होंने समानता लाने के लिए समस्त परसों को अनुना-