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पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/९०

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गोराङ्गी नवयौवनां शशिमुखीं ताम्बूलगभनिमां
मुक्तामण्डनशुभ्रमाल्यवसनां श्रीखण्डचर्चाड़्किताम्।
दृष्टा कामपि कामिनीं स्वयमिमांं ब्राह्मीं पुरो भावये-
दन्तश्चिन्तयती अनस्य मनसि त्रैलोक्यमुन्मीलिनीम्॥

यह सौन्दर्य धारणा हृदय में त्रैलोक्य को उन्मीलन करने वाली है। यहाँ समझ लेना चाहिए कि भारत में सौन्दर्य-आलम्बन नर और नारी की प्रतिच्छवि मन को महाशक्तिशाली बनाने तथा उन्नत करने के उपाय में उपासना के स्वरूप में व्यवहृत होने लगी थी।

बौद्धों के उत्तराधिकारी भी शून्यवाद से घबरा कर अनेक प्रकार की मन्त्रसाधना में लगे थे। अर्थमञ्जु श्रीमूलकल्प देखने से यह प्रगट होता है। फिर शैवागमों में जो अनुकूल अंश थे उन्हें भी अपनाने से ये न रुके। योगाचार तथा अन्य गुप्त साधनाओं वाला बौद्ध सम्प्रदाय आनन्द की खोज में आगमवादियों से मिला। विचारों में

सर्व क्षणिकं सर्वं दुःखं सर्वमनात्मम्।

पर आनन्दरूपमृतं याद्विभाति ने विजय प्राप्त की। परन्तु इनके सम्पर्क में आने पर शैवागमों का विश्वात्मवाद वाला शाम्भव सिद्धान्त भी व्यक्तिगत संकुचित अहं में सीमित होने लगा। इस संकुचित आत्मवाद को आगमों में निन्दनीय और अपूर्ण अहंता कहते थे; किन्तु बौद्धों ने उसे सरल अद्वैतबोध को