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पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/५७

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काव्य में रहस्यवाद

उपयोग हो सकता है। स्वाभाविक रहस्यभावना में-जिसका किसी वाद के साथ कई संबंध नहीं इसका कभी-कभी बहुत सुंदर उपयोग होता है। वहाँ पर यह प्रकृति के क्षेत्र के किसी अभिव्यक्त सौन्दर्य्य या माधुर्य से उठे हुए आह्राद की अनुभूति की व्यंजना करता है। जैसे शिशु की मधुर मुसकान पर मुग्ध होकर यदि कोई कवि कहे कि "इसके अधरों पर किस आनन्द-लोक की मधुर स्मृति संचरित हो रही है?"; सौरभपूर्ण कुसुम-विकास देख यदि कहा जाय कि "यह किस सुख-सौन्दर्य की अनन्त राशि से चोरी करके भाग आया है" तो प्रस्तुत माधुर्य्य या सुख सौन्दर्य के प्राचुर्य्य के निमित्त बड़ा सुंदर औत्सुक्य व्यंजित होगा। यह औत्सुक्य या अभिलाप अव्यक्त या अज्ञात के प्रति कभी नहीं कहा जा सकता; यह व्यक्त या जात के प्रति ही होगा। कवि को अपने सामने उपस्थित माधुर्य्य या सुख-सौन्दर्य इतना अच्छा लग रहा है कि वह इस भूलोक के अतिरिक्त किसी और—व्यक्त और गोचर ही—लोक की भावना करता है जहाँ इस प्रकार के सुख-सौन्दर्य्य का दर्शन इतना विरल न हो, बराबर चारों ओर देखने को मिला करे। इसमें न कही असीम का अभिलाप है, न अज्ञात की लालसा। यह उसी पुरानी स्वर्ग-भावना का आधुनिक सभ्यता के अनुकूल पड़ता हुआ रूप है। स्वर्ग के पुराने निश्चित विवरण में, आधुनिक परिष्कृत रुचि के अनुसार जो भद्दापन है वह इस अनिश्चित भावना में दूर हो जाता है।