सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८
काव्य में रहस्यवाद

लोग रस-पद्धति को अच्छी तरह समझते हैं और आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा निरुपित भाव (Emotion, Sentiment) के स्वरूप में भी परिचित हैं. उनके निट इस कथन का कोई अर्थ नहीं है। 'भाव कोई एक मानसिक वृचि नहीं है वह एक वृत्ति-चक्र (System) है। जिसके अन्तर्गत प्रत्यय (Cognition), अनुभूति (Feeling), इच्छा (Conation), गति या प्रवृत्ति (Tendency), शरीरधर्म (Symptoms), सबका योग रहता है। हमारे यहाँ रस निष्पन्न करनेवाली पूर्ण भाव-पद्धति में ये सब अवयव रखे हुए हैं। विभावों और अनुभावों की प्रतिष्टा ऋषि की कल्पना द्वारा ही होती है और श्रोता या पाठक भी उनकी मूर्ति या रूप का ग्रहण अच्छी कल्पना के बिना पूरा-पूरा नहीं कर सकता। विभाव और अनुमात्र कल्पना-साध्य हैं।

किसी भाव की रसात्मक प्रतीति उत्पन्न करने के लिए कवि-कर्म के दो पक्ष होते हैं—अनुमाव-पक्ष और विमाव-पक्ष। अनुमाव-पक्ष में आश्य के रुप, चेष्टा और वचन का और विभाग-पक्ष में आलंबन के रूप, चेष्टा और वचन का विन्यास होता है। इस दृष्टि ने शृंगाररस में लियों के जो हाव या अलंकार माने गए हैं। विमाव पक्ष के अन्तर्गत होंगे, अनुभाव-पक्ष के नहीं। नायिकाओं में हार या अलंकार की योजना उनकी मनो-मोहकता बढ़ाने के लिए—उन्हें और मनोहर-रूप प्रदान करने के लिए—होती है, भाव की व्यंजना के उद्देश्य से नहीं। नायिका