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काव्य में रहस्यवाद

किए रहते हैं, जहाँ आल्हा गानेवाले सैकड़ो सुननेवालो को घंटो वीरदर्ष से पूर्ण किए रहते हैं, वहाँ भेदभूमि से परे एक सामान्य हृदय-सत्ता की झलक दिखाई पड़ती है। भावो का ऐसा ही अभ्यास शील-निर्माण में सहायक होता है। रामायण, भागवत आदि की कथा सुनकर लौटे हुए लोगो के हृदयो पर भावो का प्रभाव कुछ काल तक रहता है। खेद है कि हृदय के व्यायाम और परिष्कार के लिए जो संस्थाएँ हमारे समाज मे प्रतिष्ठित थी उनकी ओर से हम उदासीन हो रहे हैं।

मुक्तक कविताओं में इस प्रकार मग्न करनेवाली रसधारा नहीं चलती, छींटे उछलते हैं। उनका प्रभाव क्षणिक, अतः अधिकतर मनोरंजन या दिलबहलाव के रूप मे, होता है। राजाओ की सभा में जाकर जब से कवि लोग उनके मनबहलाव का काम करने लगे तब से हमारे साहित्य मे उक्ति-वैचित्र्यपूर्ण मुक्तको का प्रचार बढ़ने लगा। भोज-ऐसे राजाओं के सामने बात बनानेवाले पद्यकार बातों की फुलझड़ी छोड़कर लाखों रुपये पाने लगे। जब क्षणिक मनोरंजन या दिल-बहलाव मात्र उद्देश्य रह गया तब कुछ अधिक कुतूहल-वर्द्धक सामग्री अपेक्षित हुई। फारस की महफिली शायरी का-सा ढंग यहाँ की कविता ने भी पकड़ा। पर फारस की शायरी अत्युक्तिपूर्ण होने पर भी संवेदनात्मक रही; उसमें भाव-पक्ष की प्रधानता रही। किन्तु यहाँ बाहरी आडम्बरों की अधिकता हुई; हृदय-पक्ष बहुत कुछ दब गया। फुटकल कविता अधिकतर सूक्ति के रूप मे आ गई। -