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पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१९

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यह ठीक है कि उनमें कुछ को पढ़े-लिखों का नेतृत्व प्राप्त था। दृष्टान्त के लिये १९२० वाले मोपला-आन्दोलन को ले सकते हैं। मगर वहाँ भी छिटपुट हिंसा की शरण लेने से भयंकर ह्रास हुआ। खिलाफत और पंजाब-कांड के बाद ही होने तथा इनके साथ मिल जाने से भी उसका निदय दमन किया गया। फलतः वह बेकार-सा गया। अहिंसा की प्रचण्ड लहर का युग होने से वह उसी में डूबा, यह भी कह सकते हैं।

मगर खेड़ा, चम्पारन और युक्तप्रान्त का पं॰ नेहरू के द्वारा संचालित आन्दोलन शान्तिपूर्ण होने के साथ ही उदात्त नेताओं के हाथों में रहा; यद्यपि संगठित रूप उसे भी नहीं दिया जा सका। फिर भी जनान्दोलन का शान्तिपूर्ण रूप मिल जाने से ही और पठित नेतृत्व के कारण ही उन सबों को कम-वेश प्रत्यक्ष सफलता मिली। उनके क्षेत्र और उद्देश्य जितने ही सकुचित या व्यापक थे, और उनमें जैसी शक्ति थी तदनुकूल ही उन्हें कम या अधिक सफलता मिली। खेड़ा का आन्दोलन तो जिले भर का था, सरकार के विरुद्ध। फलतः उसे उतनी कामयाबी न मिल सकी। चम्पारन वाला था कुछ खास इलाके का, सिर्फ निलहों की नृशंसता एवं मनमानी घरजानी के विरुद्ध। फलतः वह पूर्ण सफल रहा। अवधवाला था लम्बे इलाके के विरुद्ध, जिसमें बहुत जिले आ जाते हैं। युक्तप्रान्त का भी प्रश्न उसने साधारणतः उठाया। इसी से उसकी सफलता बहुत धीमी चाल से आनी शुरू हुई और अब तक भी पूर्णरूप से पहुँच न सकी।

असहयोग के पूर्व किसान-आन्दोलन में जो दृढ़ता न आ सकी और उसे जो पूर्ण संगठित रूप मिल न सका उसके दो बड़े कारण थे, जिसका उल्लेख अब तक किया न जा सका है। एक तो किसान जनता में आत्म-विश्वास न था। सदियों से कुचले, पिसे किसान आत्म-विश्वास खो चुके थे। अतः विश्वासपूर्वक सामूहिक रूप से खम ठोक कर अपने उत्पीड़कों से लद न सकते थे। फलतः एक बार फिसले तो हिम्मत हार गये और चुप्पी मार बैठे। फिर संगठन कैसा? दूसरे, आन्दोलन चलाने के लिये बहुसंख्यक पठित कार्यकर्त्ता और नेता भी नहीं प्राप्त थे-ऐसे नेता और कार्य-