, "आइये हजरत, हजरत की हरकत तो देखिये' आदि बोलादकरते हैं। यह तो मामूली बोल-चाल का शब्द हिन्दी भाषा में हो गया है। इसलिये अगर उस पर इतराज हुआ तो सिर्फ इसलिये कि कृष्ण को उनने हजरत कह दिया। यह तो गजब हो गया। वही मुसलमान अपने बड़े से बड़े नेता को, पैगम्बर साहब को हजरत कहता है और हम लोग सुनते रहते हैं। फिर भी जिन्हें हिन्दू अवतार मानते हैं उन्हें वही मुसलमान हजरत कहे तो श्राफ़त हो गई। इस बात का इससे सबूत मिलता है कि हम लोग असल में कितने गहरे पानी में हैं। इसी प्रकार 'सीता को वेगम और राम को बादशाह' कहने का भी विरोध करते हमने जेल में सुना। बाहर तो सुनते ही थे। अगर अंग्रेजी में क्वीन (Queen) और किंग (King) कहा जाय तो हमें जरा भी दर्द नहीं होता। हालाँकि इन शब्दों का मतलब वही है जो वेगम और बादशाह का। हमने यह नजारा देखा और अफ़सोस किया। अाजकल हिन्दी पढ़ने का शौक बढ़ गया है। इसीलिये जो जेल में भी यह बात देखने को मिली ज्यादातर गांधीवादी लोग ही ऐसे दिखे। यों तो तथाकथित वामपक्षी और क्रांतिकारी लोग भी इस तरह के पाये गये । हिन्दी और हिन्दुस्तानी पर विचार विमर्श भी होता रहा । कुछ लोगों ने जो अपने को राजनीतिक नेता मानते हैं, यह तय किया कि मिडिल क्लास के ऊपर तो हिन्दुस्तानी की किताबें पढ़ाई जाय। मगर 'नीचे को कक्षाओं में वही 'दृष्टिकोण' वाली हिन्दी ही पढ़ाई जाय । शायद इसमें उनने एक ही तीर से दोनों शिकार मारे। हिन्दी साहित्य और हिन्दू संस्कृति भी वचा ली गई और हिन्दू-मुसलिम एकता के जरिये राजनीति की भी रक्षा हो गई । मगर वे यह समझी न सके कि यह रक्षा नकली है। इससे काम नहीं चलने का। मैंने ऐसे एकाध दोस्तों से पूछा कि जो लोग मिडिल से भागे नहीं जा सकते उनकी राजनीति कैसे बचेगी ? उनका हिन्दू-मुसलिम मेल क्यों- कर हो सकेगा? और भो तो सोचने की बात है कि अधिकांश तो मिडल
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