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पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/११५

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:: कुछ विचार ::
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और सुडौल बनाने के लिए पौधों को एक थूनी का सहारा दिया जाता है। आप विद्वानों का ऐसा नियन्त्रण रख सकते हैं कि अश्लील, कुरुचिपूर्ण, कर्णकटु, भद्दे शब्द व्यवहार में न आ सकें; पर यह नियंत्रण केवल पुस्तकों पर हो सकता है। बोल-चाल पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखना मुश्किल होगा; मगर विद्वानों का भी अजीब दिमाग़ है। प्रयाग में विद्वानों और पण्डितों की सभा 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' में तिमाही, सेहमाही और त्रैमासिक शब्दों पर बरसों से मुबाहसा हो रहा है और अभी तक फ़ैसला नहीं हुआ। उर्दू के हामी 'सेहमाहीं' की ओर हैं, हिन्दी के हामी 'त्रैमासिक' की ओर, बेचारा 'तिमाही' जो सबसे सरल, आसानी से बोला और समझा जानेवाला शब्द है, उसका दोनों ही ओर से बहिष्कार हो रहा है। भाषा सुन्दरी को कोठरी में बन्द करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं, लेकिन उसके जीवन का मूल्य देकर। उसकी आत्मा स्वयं इतनी बलवान बनाइये, कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनों ही की रक्षा कर सके। बेशक हमें ऐसे ग्रामीण शब्दों को दूर रखना होगा, जो किसी ख़ास इलाके में बोले जाते हैं। हमारा आदर्श तो यह होना चाहिये, कि हमारी भाषा अधिक-से-अधिक आदमी समझ सकें; अगर इस आदर्श को हम अपने सामने रखें, तो लिखते समय भी हम शब्दचातुरी के मोह में न पड़ेंगे। यह ग़लत है, कि फ़ारसी शब्दों से भाषा कठिन हो जाती है। शुद्ध हिन्दी के ऐसे पदों के उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिनका अर्थ निकलना पण्डितों के लिए भी लोहे के चने चबाना है। वही शब्द सरल है, जो व्यवहार में आ रहा है, इसमें कोई बहस नहीं कि वह तुर्की है, या अरबी, या पुर्तगाली। उर्दू और हिन्दी में क्यों इतना सौतिया-डाह है यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर एक समुदाय के लोगों को 'उर्दू' नाम प्रिय है तो उन्हें उसका इस्तेमाल करने दीजिये। जिन्हें 'हिन्दी' नाम से प्रेम है वह हिन्दी ही कहें। इसमें लड़ाई काहे की? एक चीज़ के दो नाम देकर ख्वामख्वाह आपस में लड़ना और उसे इतना महत्त्व दे देना कि वह राष्ट्र की एकता