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पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/१४०

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:: कुछ विचार ::
 

और चारों तरफ़ से शोर मचेगा कि हमारी भाषा का गला रेता जा रहा है, कुन्द छुरी से उसे ज़बह किया जा रहा है। उर्दू को मिटाने के लिये यह साज़िश की गई है, हिन्दी को डुबोने के लिए यह माया रची गई है। लेकिन हमें इन बातों को कलेजा मज़बूत करके सहना पड़ेगा। राष्ट्र-भाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती। उसे किसानों और मज़दूरों की भाषा बनना पड़ेगा। जैसे रईसों और अमीरों ही से राष्ट्र नहीं बनता, उसी तरह उनकी गोद में पली हुई भाषा राष्ट्र की भाषा नहीं हो सकती। यह मानते हुए कि सभाओं में बैठकर हम राष्ट्रभाषा की तामीर नहीं कर सकते, राष्ट्र-भाषा तो बाज़ारों में और गलियों में बनती है; लेकिन सभाओं में बैठकर हम उसकी चाल को तेज़ जरूर कर सकते हैं। इधर तो हम राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, उधर अपनी अपनी ज़बानों के दरवाजों पर संगीने लिये खड़े रहते हैं कि कोई उसकी तरफ़ आँख न उठा सके। हिन्दी में हम उर्दू शब्दों को बिला तकल्लुफ़ स्थान देते हैं; लेकिन उर्दू के लेखक संस्कृत के मामूली शब्दों को भी अन्दर नहीं आने देते। वह चुन-चुनकर हिन्दी की जगह फ़ारसी और अरबी के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। ज़रा-ज़रा से मुज़क्कर और मुअन्नस के भेद पर तुफान मच जाया करता है। उर्दू ज़वान सिरात का पुल बनकर रह गई है, जिससे ज़रा इधर उधर हुए और जहन्नुम में पहुँचे। जहाँ राष्ट्र-भाषा के प्रचार करने का प्रयत्न हो रहा है, वहाँ सब से बड़ी दिक़्कत इसी लिङ्ग-भेद के कारण पैदा हो रही है। हमें उर्दू के मौलवियों और हिन्दी के पण्डितों मे उम्मीद नहीं कि वे इन फन्दों को कुछ नर्म करेंगे। यह काम हिन्दुस्तानी भाषा का होगा कि वह जहाँ तक हो सके निरर्थक क़ैदों से आजाद हो। आँख क्यों स्त्री लिङ्ग है और कान क्यों पुल्लिङ्ग है? इसका कोई सन्तोष के लायक़ जवाब नहीं दिया जा सकता।

राष्ट्रीय संस्थाओं से अपील

मेरी समझ में यही बात नहीं आती कि जो संस्था जनता की भाषा