सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

म्यगोयकुसुम (चागसवा चालीसवां परिच्छेद वैराग्य, " निःस्नेहो याति निर्वाणं, स्नेहोऽनर्थस्य कारणम् । निःस्नेहेन प्रदोपेन, यदेतत्प्रकटीकृतम् ॥" (श्रीदामोदरदेवः) किन, हां! एक बसन्त के सामने वह अपने को हर तरह से सम्हाले रहती और हँस-हंस कर बातें करने से अपने को खुश जाहिर किया करती थी; पर उसके दिल की सट्ठी रात दिन सुलगा हो करती थी ! वह बहुत देर तक बसन्त को भी अपने पास नहीं बैठाती थी और थोड़ी देर इधर-उधर की, और मन बहलाने की बातें करके, उसे वरजोरो बिदा कर देती थी। यदि कभी बसन्त के आने में देर होती, या किसी दिन वह न आता,-पर ऐसा बहुत ही कम होता था, तो वह घबरा जाती थी और नौकरो के पुल बांधकर उसे बुलवालेती थी। कभी कभी वह खुद भी घर जाकर अपनी बहिन गुलावदेई को देख और उसका सिंगार कर आती थी। यहां तक उसने जीते जी अपने को मिट्टी में मिला रवा था कि जबसे बसन्त की शादी हुई थी, तबले उसने वसन्त के साथ एकभी रात महीं बिताई थी!यदि इस बात पर कभी बसन्तकुमार उलझता था, तो वह हँसकर और यों कहकर बात उड़ा देनी थी कि, 'गुलाव से बढ़कर भी क्या किसी ( दूसरे) कुसुम (मुझ } में रंगत और खुशबू है !!! लेकिन, ऐसा क्यों हुआ? अर्थात कुसुम के चित्त की ऐसी अवस्था क्यों होगई ? क्या इसे भी प्रेमी पाठकों को समझाना होगा! ज़रा आपलोग ध्यान तो दीजिए कि कसुम किस घराने की लड़की थी और अब वह किस दर्जे को पहुंच गई थी!तो जिसे ऐसी दशा में आने का ज्ञान होजाय, उसके चित्त की और कैसी अवस्थ' होसकती हैं इससे तो कहीं अछा होता यदि वह अपना पिछल हाल ही न जानमा