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पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/५१

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स्वर्गीयकुसुम

[चौदहवां

चौदहवां परिच्छेद
सेवा!

“सौख्यं तृणीकृत्य विहाय निद्रां,
सान्न च पानीयमपास्य सम्यक् ।
नानोपचारेण वरेण रुग्णं,
पर्याकुला पर्यचत्प्रियं सा॥

(प्रणयपारिजाते)

हमारे प्यारे पाठक यह बात भली भांति जान गए होंगे कि कुसुमकुमारी बसन्तकुमार को कितना प्यार करती थी! इसलिये अब यहां पर इस बात को बढ़ाकर लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है कि उसने अपने प्रानप्यारे की कैसी सेवा-टहल की। बस, यहांपर केवल इतना ही लिखना बहुत होगा कि वह बराबर रात-दिन बसन्त की चारपाई के पास कुर्सी पर बैठी हुई अपने प्यारे की ओर निहारा और रोया करती, समय-समय पर रोगी के मुंह में औषधि, जल और दूध अपने हाथ से डाल देती और डाक्टर के साथ-साथ मलहम-पट्टी भी करती थी। उसने अपना खाना, पीना, सोना और सारा आराम एक तरह से छोड़ दिया था और वह यह चाहती थी कि, 'क्योंकर,मैं अपने प्यारे पर निछावर होजाऊं!” उसके दास-दासी और डॉक्टर भी उसे खाने, पीने, सोने और आराम करने के लिये बहुत समझाते, पर उनसभों को वह सिर्फ यही जवाब देती कि, ' अब तो जब नारायण वह दिन दिखलावेगा, तभी मैं अन्न-जल करूंगी! नहीं तो अपने प्यारे पर न्योछावर होजाऊंगी। 'जब डाक्टर बहुत समझाता तो वह केवल जरा सा दूध पीलेती! इसके अलावे उसने पानी तक त्याग दिया था। वह अपनी कुर्सी पर बैठी-बैठी ज़रा-बहुत नींद के झोंके झेल लेती, पर जरा भी खाट पर पीठ नहीं लगाती थी और न बिला-वजह रोगी की चारपाई छोड़कर हटती ही थी। यों ही आठ दिन के कठिन-परिश्रम. पूर्ण-चिकित्सा और बड़ी सेवा―टहल से कछ होश में आया और उसने जरा सी