सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

परिच्छेद ]

कुसुमकुमारी

४७

का जवाब दिए बिना तुम यहाँसे ज़रा न हिलने पाओगी।" कुसुम,-(बिगड़-कर) “ हटो जी, वाह ! अगर तुम मुझे ज़ियादह छेड़ोगे तो मैं अपना सिर पीट डालूंगी।" बसन्त;-" मगर पहिले मेरी बातों का जवाब तो दे लो!" आखिर, कुसुम खिलखिलाकर हंस पड़ी और बसन्त के गले लगकर बोली,-" प्यारे ! अब बस करो; क्यों कि इससे ज़ियादह मैं और क्या कहूँ क्योंकि भला काया के बिनाकभी छाया ठहर सकती है ! हाय, प्यारे! नारायण जानता होगा कि तुम्हारी हालत देख- देख-कर मेरे नन्हें से नाजुक दिल ने कैसी-कैसो कड़ी-कड़ी चोटे खा- खा-कर भी आज तक इस आशा से अपने पापी प्राणों को निकलने नहीं दिया था कि.-'नारायण करेगा तो फिर भी तुम्हें गले लगाना नसीब होगा; सो भगवान ने मेरी दिली मुराद पूरी की!" यह सुन और शर्माकर बसन्तकुमार हंसने लगा। कुसुम ने कहा,-" मैं तो यह समझतो थी कि परमेश्वर ने तुम्हारे मन में कुछ दया-मायाभी दीहोगी, पर नहीं, मेरा यह ख़याल ग़लत निकला और तुम निरे तोतेचश्म और वेमुरौवत निकले!" बसन्त,-(शरमाकर) " प्यारी, बेशक तुम जो कुछ कहो, सो सब ठीक है; क्यों कि मैं तो उससे भी बढ़कर नालायक और खुद- ग़रज़ हूं, जैसा कि तुम मुझे समझती होगी; और सच्ची बात तो यह है कि प्यार तो तुम्हाराही सच्चा है और प्यार करना तुम्हींसे कोई दुनियां में सीख ले ! भला, मेरी क्या मजाल है कि मैं तुम्हारे सच्चे प्यार का मुकाबला कर सकूं, या उसका बदला चुका सकूं! मैं तो अगर अपने चाम की जूती भी बनाकर तुम्हें पहिराऊ, तो भी तुम्हारे सच्चे प्यार का एवज़ न चुका सकूंगा; इसलिये, प्यारी, प्रानप्यारी, हे मेरी प्यारी कुसुम! तुम अब अपनी ओर देखो और मेरी नालायकी का ज़रा भी खयाल अपने दिल में न करो।" । जबतक बसन्त ऊपर लिखी बातें कहता रहा, तब तक कुसुम मुस्कुराहट के साथ उसकी ओर देखती रही, पर जब वह चुप हुआ, तब उसका हाथ पकड़कर कुसुम उसे दूसरे कमरे में लेगई और यों बोली,-" बस, बस, बहुत हुआ; अब ज़ियादह सिर न चाटो और अपनी लियाकत को तय कर रक्खो !!".