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पृष्ठ:ग़बन.pdf/१४९

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बार सोचती, अगर रात-भर न आये, तो कल क्या करना होगा? जब तक कुछ पता न चले कि वह किधर गये, तब तक कोई जाय तो कहाँ जाय। आज उसके मन ने पहली बार स्वीकार किया कि यह सब उसी की करनी का फल है। यह सच है कि उसने कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं किया; लेकिन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया। अगर गहने चोरी हो जाने के बाद वह इतनी अघोर न हो गई होती, तो आज यह दिन क्यों आता ! मन की इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी। वह जानती थी, रमा रिश्वत लेता है, नोच-खसोटकर रुपये लाता है। फिर भी कभी उसने मना नहीं किया। उसने खुद क्यों अपनी कमरो के बाहर पाँव फैलाया ! क्यों उसे रोज़ सैर-सपाटे को सूझती थी? उपहारों को ले लेकर वह क्यो फूली न समाती थी? इस जिम्मेदारी को भी इस वक़्त जालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ प्रेम के वश होकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो सब कुछ करते थे। युवकों का यही स्वभाव है। फिर उसने उनकी रक्षा के लिए क्या किया। क्यों उसे यह समझ न आयी कि आमदनी से ज्यादा खर्च करने का दण्ड एक दिन भोगना पड़ेगा? अब उसे ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं जिनसे उसे रमा के मन को विकलता का परिचय आ जाना चाहिये था, पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया।

जालपा इन्हीं चिन्ताओ में डूबी हुई न जाने कब तक बेठी रही। जब चोकीदार की सीटियों को आवाज उसके कानों में आयी, तो वह नीचे जाकर रामेश्वरी से बोली——वह तो अब तक नहीं आये। आप चलकर भोजन कर लीजिए।

रामेश्वरी बैठे-बैठे झपकियाँ ले रही थी। चौककर बोली——कहाँ चले गये थे?

रामेश्वरी——अब तक नहीं आये ! आधी रात हो गयी होगी। जाते वक्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं ?

जालपा——कुछ भी नहीं।

रामेश्वरी——तुमने तो कुछ नहीं कहा?

जालपा——मैं भला क्या कहती!

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