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पृष्ठ:ग़बन.pdf/२२३

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को हिरासत में न भेजो। मैं रुपये की फिकर करके अभी थोड़ी देर में आता हूँ।

देवीदीन चला गया तो दारोगाओं ने सहृदयता से भरे हुए स्वर में कहा——है तो खुरांद, मगर बड़ा नेक। तुमने कौन बूटी सुंघा दी?

रमा ने कहा——गरीबों पर सभी को रहम आता है।

दारोगा ने मुस्कराकर कहा——पुलिस को छोड़कर, इतना और कहिए ! मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिनियां लाये।

रमा०——अगर लाये भी तो उससे इतना बड़ा तादान नहीं दिलाना चाहता। आप मुझे शौक से हिरासत में ले लें।

दारोगा——मुझे पाँच सौ के बदले साढ़े छ: सौ मिल रहे हैं, का कहूँ! तुम्हारी गिरफ्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे भाई को मिल जाय तो क्या बुराई है।


रमा०——जब मुझे चक्की पीसनी है, तो जितनी जल्दी पीस लू उतना ही अच्छा। मैंने समझा था, मैं पुलिस की नजरों से बनकर रह सकता हूँ। अब मालूम हुआ कि यह बेअकली और आठों पहर पकड़ लिये जाने का खौफ़ तो जेल से कम जानलेवा नहीं।


दारोगाजी को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। मेज के दराज से एक मिसल निकाली, उसके पन्ने इधर उधर उल्टे, तब नम्रता से बोले——अगर मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊँ कि देवीदीन के रुपये भी बच जाय और तुम्हारे ऊपर भी हर्फ न आये तो कैसा?

रमा ने अविश्वास के भाव से कहा——ऐसी कोई तरकीब है, मुझे तो आशा नहीं।

दारोगा——अजी, साई के सौ खेत है। इसका इन्तजाम में कर सकता हूँ। आपको महज एक मुकदमे में शहादत देनी होगी।

रमा——झूठी शहादत होगी!

दारोगा——नहीं, बिल्कुल सच्ची। बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे। म्युनिसिलिटी के पंजे से तो छूट ही जाओगे, शायद सरकार परवरिश भी करे। जो अगर चालान हो गया, तो पाँच साल से कम की सजा न होगी। मान लो, इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की माँ कब तक खैर मना

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