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पृष्ठ:ग़बन.pdf/२४३

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जालपा हमारी बिरादरी में भी तो दूसरों का खाना मना है। जग्गो-तुम्हें यहाँ कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।

जालपा-यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बनाओ और मैं खाऊँ। जिसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था;तो बहू क्यों बनाया ?

देवीदीन ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देखकर कहा- बहू ने बात तो पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी इन लोगों को जरा आराम करने दो।

दोनों नीचे चले गये तो गोपी ने आकर कहा- भैया इसी खटिक के यहां रहते थे क्या? खटिक ही तो मालूम होते हैं।

जालपा ने फटकारकर कहा - खटिक हों या चमार हों, लेकिन हमने और तुमसे सौ-गुने अच्छे है। एक परदेशी को छः महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया-पिलाया। हममें है इतनी हिम्मत ? यहां तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भारी हो जाता है। अगर यह नीच है, तो हम इनसे कहीं नीच है।

गोपी मुंह हाथ धो चुका था | मिठाई खाता हुआ बोला—किसी को ठहरा लेने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। चमार कितना ही दान-पुण्य करे पर रहेगा तो चमार हो !

जालपा-मैं उस चमार को उस पण्डित से अच्छा समझूँगी जो हमेशा दूसरों का धन खाया करता हैं।

जलपान करके गोपी नीचे चला गया। शहर धूमने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जालपा की इच्छा कुछ खाने की न हुई। उसके सामने एक जटिल समस्या खड़ी थी-रमा को कैसे इस दलदल से निकाले। उस निन्दा और उपहास की कल्पना ही से उसका अभिमान आहत हो उठता था। हमेशा के लिए वह सबकी आँखों से गिर जायँगे, किसी को मुंह न दिखा सकेंगे।

फिर, बेगुनाहों का खून किसकी गर्दन पर होगा। अभियुक्तों में न जाने कौन अपराधी है, कौन निरपराधी हैं। कितने द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ

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